Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १६१ पहुँचे। प्रश्न किया- “कहमेयं भन्ते ? भगवन् ! यह बात कैसे है ? इसमें सत्य क्या है ? गौतम गणधर के प्रश्नों का विशाल क्रम ही जैन साहित्य और दर्शन की सुदीर्घ परम्परा है। यदि महान् आगम वाङ्मय में से गौतम आदि साधकों के प्रश्नोत्तर व संवाद निकाल दिये जाएं तो फिर आगम साहित्य में नगण्य ही शेष रह जाएगा । योरोप के अंग्रेजी साहित्य में जो स्थान शैक्सपियर के साहित्य का है, संस्कृत साहित्य में जो स्थान कालिदास के साहित्य का है, जैन आगम में वही स्थान गौतम आदि के संवादों का है। गौतम के प्रश्न और संवाद जैन आगमों की आत्मा हैं। भारतीय विचारकों ने तो यहां तक कह दिया " न हि संशय मनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति" संशय किये बिना मनुष्य कल्याण के दर्शन ही नहीं कर सकता। पुराने आचार्य ग्रन्थों का निर्माण करते समय सबसे प्रथम उसकी पृष्ठभूमि जिज्ञासा पर खड़ी करते हैं- “ अथातो धर्मजिज्ञासा" - अब धर्म की जिज्ञासा - जानने की इच्छा प्रारम्भ की जाती है। इस प्रकार जिज्ञासा से दर्शन और धर्म के साहित्य का निर्माण हुआ है। जिज्ञासा ने ही मूर्ख को विद्वान बनाया है। अज्ञानी को ज्ञान दिया है। हर एक आत्मा में जिज्ञासा पैदा होती है, वह उसका समाधान कर विकास के पथ पर बढ़ता जाता है। सुख की इच्छा और स्वतंत्रता की भावना की तरह जिज्ञासा भी आत्मा की सहज भावना है, स्वभाव है, उससे किसी को रोका नहीं जा सकता।
लोक क्या है?
विश्व के सभी दर्शन किसी न किसी रूप में लोक का स्वरूप समझने का प्रयत्न करते हैं। दार्शनिक खोज के पीछे प्रायः एक ही हेतु होता है और वह हेतु है सम्पूर्ण लोक । जिसे हम लोकोत्तर कहते हैं वह भी वास्तव में लोक ही है। लोक को समझने के दृष्टिकोण जितने विभिन्न होते हैं उतनी ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराएं भूतल पर जन्म लेती रहती हैं।
लोक शब्द " लुक् " धातु के निष्पन्न हुआ है - "लोक्यते - अवलोक्यते इति लोकः” अर्थात् आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य दिखाई देते हैं वह लोक कहलाता है। लोक से बाहर आकाश के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
गौतम प्रश्न करते हैं-भन्ते ! लोक क्या है ?
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