Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 236
________________ २२२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ___ असंयम-चारित्रमोह के उदय से होने वाली हिंसादि और इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्ति असंयम है। असंज्ञी-जो जीव मन के न होने से शिक्षा, उपदेश और आलापादि को ग्रहण न कर सके। असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना-मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध जीवों की प्ररूपणा। असातावेदनीय-जिस कर्म का अनुभवन परिताप के साथ किया जाय। अर्थात् असाता का अर्थ दुःख है उस दुःख का जो वेदन कराता है वह कर्म। असिद्ध-जिसका स्वरूप प्रमाण से सिद्ध न हो। असुरकुमार देव-जो भवनवासी देव गम्भीर, शोभा सम्पन्न, कृष्ण वर्णवान्, महाकाय और अपने मुकुट में चूड़ामणि रत्न को धारण करते हैं। अस्तिकाय-बहु प्रदेशों के समूह को “काय' कहते हैं, और अस्तित्व का अर्थ सत्ता है। कालद्रव्य परमाणु मात्र प्रमाण वाला होने से उसे छोड़कर शेष पांच द्रव्य अधिक प्रमाण वाले होने के कारण कायवान हैं। अस्तित्व और कायत्व से युक्त पांच अस्तिकाय हैं। अस्तित्व-पदार्थों के सत्तारूप मौलिक धर्म का नाम अस्तित्व है। यह जीवादि सभी पदार्थों का साधारण अनादि पारिणामिक भाव है। ___ अस्थिरनाम-जिसके उदय से उपवासादि करने से अथवा शीत उष्णता के थोड़े से सम्बन्ध से ही अंग-उपांग कृशता को प्राप्त हों अथवा जिस कर्म के उदय से शरीर के कान, जीभ आदि अवयवों में अस्थिरता या चंचलता हो। अहिंसा-रागादि भावों की अनुभूति या अनुत्पत्ति अहिंसा है। आकाश-खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं, इसे एक अखण्ड, अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है, जो अपने अन्दर सर्व द्रव्यों के समाने की शक्ति रखता है। अवगाहना शक्ति की विचित्रता के कारण छोटे से लोक में अथवा इसके एक प्रदेश पर अनन्तानन्त द्रव्य स्थित हैं। आगम-पूर्वापर दोष रहित, शुद्ध आप्त का वचन आगम है। आचारांग-जिसमें मुनियों के आचार का वर्णन है, वह आचारांग है। यह द्वादशांगी का प्रथम अंग शास्त्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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