Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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२३४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
और व्यतिरेकी को पर्याय कहते हैं। इन ध्रुव व क्षणिक दोनों अंशों से ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप वस्तु की सिद्धि होती है।
पाप-अशुभ प्रवृत्ति। जो आत्मा को शुभ से गिराता है-उत्तम कार्य में प्रवृत्त नहीं होने देता, वह पाप है।
पारिणामिक भाव-कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम की अपेक्षा न रखनेवाले जीव-अजीव गत जो भाव हैं वह पारिणामिक भाव। भले ही अन्य पदार्थों के संयोग की उपाधिवश द्रव्य अशुद्ध प्रतिभासित होता है, पर अपने स्व-स्वभाव से सर्वथा च्युत नहीं होता। अन्यथा जीव, घट बन जाय और घटादि जीव।
पुण्य-जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है, वह भाव पुण्य है। और भावपुण्य के निमित्त से उत्पन्न होने वाले सातावेदनीयादि शुभ प्रकृति रूप पुद्गलपरमाणुओं का पिण्ड द्रव्यपुण्य है।
पुद्गल-जो एक दूसरे के साथ मिलता-बिछुड़ता रहे, ऐसे पूरण-गलन स्वभावी मूर्तिक जड़ पदार्थ को पुदगल कहते हैं। मूलभूत पदार्थ तो अविभागी परमाणु ही है। परमाणुओं के परस्पर बन्ध से ही जगत् के चित्र-विचित्र पदार्थों का निर्माण होता है, जो स्कन्ध कहे जाते हैं। स्पर्श, रस, गन्ध, वर्णये पुद्गल के प्रसिद्ध गुण हैं।
पृथ्वीकायिक-जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से युक्त होते हुए पृथिवी को शरीर रूप से ग्रहण किये हुए हैं, वे पृथिवीकायिक कहलाते
प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है। प्रवृत्ति प्रतिकूलतया आ मर्यादयाख्यान प्रत्याख्यानं-(योगशास्त्र वृत्ति) द्रव्य से अशन, पान आदि का त्याग करना और भाव से मिथ्यात्व, अव्रत आदि का त्याग करना द्रव्यप्रत्याख्यान व भाव प्रत्याख्यान है।
प्रत्याख्यानावरण-जिस कर्म अर्थात् महाव्रतावरणकर्म के उदय से जीव परिपूर्ण विरति को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हो, उस सकल प्रत्याख्यान को आवृत करने वाले क्रोध-मान-माया और लोभ रूप कषायमोहनीय के भेद को प्रत्याख्यानावरण कहा है।
प्रदेश-आकाश के छोटे से छोटे अविभागी अंश का नाम प्रदेश (Space Point) है। एक परमाणु जितने आकाश में रहता है, उतने आकाश
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