Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 240
________________ २२६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन निरूपण करता है। जीव मन-वचन-काय के द्वारा जो कुछ करता है वह क्रिया या कर्म है। इस भावकर्म से प्रभावित होकर कुछ सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध आत्म-प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं, और उसके साथ बंधते हैं। ये सूक्ष्म स्कन्ध द्रव्यकर्म कहलाते हैं। अथवा जो जीव को परतन्त्र करते हैं या जीव जिनके द्वारा परतंत्र किया जाता है अथवा जीव के द्वारा मिथ्यादर्शनादि परिणामों से जो किये जाते हैं-उपार्जित किये जाते हैं, वे कर्म हैं। कर्म ज्ञानावरणीयादि के भेद से आठ प्रकार के हैं। कषाय-जो क्रोधादिक जीव के सुख-दुःख रूप बहुत प्रकार के धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूप खेत का कर्षण करते हैं, वह कषाय हैं। अथवा आत्मा के भीतरी कलुष परिणामों को कषाय कहते हैं। यद्यपि क्रोध-मान-माया-लोभ ये चार कषाय ही प्रसिद्ध हैं। पर इनके अतिरिक्त भी अनेकों प्रकार की कषायों का निर्देश आगमों में मिलता है। हास्य, रति, अरति आदि नव नोकषाय कही जाती हैं, क्योंकि वे कषायवत् व्यक्त नहीं होतीं। इन सबको ही राग-द्वेष में गर्भित किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूप का घात करने के कारण कषाय ही वस्तुतः हिंसा है। एक दूसरी दृष्टि से भी कषायों का निर्देश मिलता है। वह चार प्रकार का है-अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान व संज्वलन। ये भेद विषयों के प्रति आसक्ति की अपेक्षा से हैं। और क्योंकि वह आसक्ति भी क्रोधादि द्वारा ही व्यक्त होती है, अतः इन चारों के क्रोधादि के भेद से चार-चार भेद करके कुल १६ भेद कर दिये हैं। वहां क्रोधादि की तीव्रता-मंदता से इनका सम्बन्ध नहीं है बल्कि आसक्ति की तीव्रता-मंदता से है। हो सकता है किसी व्यक्ति में क्रोधादि की तो मंदता हो और आसक्ति की तीव्रता या क्रोधादि की तीव्रता हो और आसक्ति की मन्दता। अतः क्रोधादि की तीव्रता-मन्दता को लेश्या द्वारा निर्दिष्ट किया है और आसक्ति की तीव्रता-मंदता को अनन्तानुबंधी आदि द्वारा। (जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग २) कार्मण शरीर-ज्ञानावरणादि अष्टविधकर्मस्कन्ध जो सब कर्मों का प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक व सुख-दुःख का बीज है, वह कार्मण शरीर है। कार्मण शरीर चारों गति के जीवों को होता है। केवलज्ञान-जीवन्मुक्त योगियों का एक निर्विकल्प, अतीन्द्रिय अतिशय ज्ञान जो अन्य की अपेक्षा से रहित, विशुद्ध, सर्वकाल व क्षेत्र सम्बन्धी सर्व पदार्थों को हस्तामलकवत् जानता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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