Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २२९ तीर्थङ्कर-महापरिनिर्वाण सूत्र, महावग्ग दिव्यावदान आदि बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार महात्मा बुद्ध के समकालीन छह तीर्थङ्कर थे-१. भगवान महावीर, २. महात्मा बुद्ध, ३. मस्करी गोशाल, ४. पूरण काश्यप, ५. अजित केशकम्बली, ६. पकुध कात्यायन।
संसार सागर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रत्येक कल्प में २४ तीर्थङ्कर होते हैं। उनके गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञानोत्पत्ति व निर्वाण-इन पांच अवसरों पर महान् उत्सव होते हैं, जिन्हें पंचकल्याण कहते हैं। तीर्थङ्कर बनने के संस्कार षोडश या बीस अत्यन्त विशुद्ध भावनाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं, उसे तीर्थङ्कर प्रकृति का बंधना कहते हैं। ऐसे परिणाम केवल मनुष्यभव में और वहां भी किसी तीर्थङ्कर या केवली के पादमूल में ही होने सम्भव हैं। ऐसे जीव प्रायः देवगति में ही जाते हैं। फिर भी यदि पहले से नरकायु का बंध हुआ हो और बाद में तीर्थङ्कर प्रकृति बंधे तो वह जीव केवल तृतीय नरक तक ही उत्पन्न होता है। उससे अनन्तर भव में अवश्य मुक्ति को प्राप्त करता है। तीर्थंकर को गृहस्थावस्था में भी अवधिज्ञान होता है। ये चौंतीश अतिशय व पैंतीस वाणी के गुणों के धारक होते हैं। (देखिए जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा.
तीर्थ-संसार समुद्र से दुःखी प्राणियों को पार उतारने वाले श्रेष्ठ मार्ग को तीर्थ कहते हैं। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चातुर्वर्ण रूप संघ को भी तीर्थ कहते हैं। यह तीर्थ ऋषभादि तेईस तीर्थङ्करों के तो प्रथम समवसरण में ही उत्पन्न हुआ, किन्तु भगवान महावीर के द्वितीय समवसरण में तीर्थ की स्थापना हुई। चातुर्वर्ण श्रमण संघ को अथवा गणधर को तीर्थ माना जाता है।
तैजस शरीर-जो शरीर तेज-शरीर स्कन्ध का पद्मरांग मणि जैसा वर्ण और प्रभा-शरीर से निकलने वाली कांति आदि गुण युक्त होता है उसे तैजस कहा जाता है अथवा समस्त प्राणियों के आहार का पाचक जो उष्णता रूप तेज है उसके विकास को तैजस शरीर कहते हैं। यह शरीर सर्व संसारी जीवों के होता है। ___ दर्शन-आत्म विषयक उपयोग दर्शन कहलाता है। अथवा द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत सामान्य वस्तु का ग्रहण दर्शन है, अथवा आप्त, आगम और पदार्थों में जो रुचि, प्रत्यय या श्रद्धा होती है, उसे दर्शन कहते हैं।
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