Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 242
________________ २२८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन छद्मस्थ-छद्म अर्थात् आवरण, ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि कर्मआवरणों में जो रहता है, वह छद्मस्थ है। जम्बूद्वीप-मनुष्य लोक के ठीक मध्य में एक लक्ष योजन विस्तार वाला गोल जम्बूद्वीप है। उत्तरकुरु क्षेत्र में अनादि निधन पृथिवीमयी अकृत्रिम परिवार वृक्षों से युक्त जम्बूवृक्ष है। उससे उपलक्षित होने से उसका जम्बूद्वीप यह सार्थक नाम है। ___ जीव-संसार या मोक्ष दोनों में जीव प्रधान तत्त्व है। यद्यपि ज्ञान-दर्शन स्वभावी होने के कारण वह आत्मा ही है तथापि संसारी दशा में प्राण धारण करने से जीव कहलाता है। वह अनन्तगुणों का स्वामी एक, प्रकाशात्मक, अमूर्तिक सत्ताधारी पदार्थ है। वह कल्पना मात्र नहीं है, न ही पंचभूतों के मिश्रण से उत्पन्न होने वाला कोई संयोगी पदार्थ ही है। संसारी दशा में, शरीर में रहते हुए भी शरीर से पृथक्, लौकिक विषयों को करता व भोगता होते हुए भी वह उनका केवल ज्ञाता है। वह यद्यपि लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है परन्तु संकोच विस्तार शक्ति के कारण शरीर प्रमाण होकर रहता है। कोई एक ही सर्वव्यापक जीव हो, ऐसा जैन दर्शन नहीं मानता। जीव अनन्तानन्त हैं। उनमें से जो भी साधना विशेष के द्वारा कर्मों का आत्यन्तिक क्षय कर देता है, वह सदा अतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता परमात्मा बन जाता है। तत्त्व-जिस वस्तु का जो भाव है, वह तत्त्व है। अथवा वस्तु के असाधारण रूप स्वतत्त्व को तत्त्व कहते हैं। तत्त्व नौ हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष। दार्शनिक ग्रन्थों में पुण्य-पाप को पृथक् तत्त्व नहीं गिनाया है, उन्होंने आस्रव तत्त्व में ही पुण्य और पाप का समावेश कर दिया है। पर आगम-ग्रन्थों में पुण्य और पाप को मिलाकर नव तत्त्वों का वर्णन किया गया है। तिर्यञ्च-"तिरो अचंतीति तिर्यञ्चः" जो तिरछे चलते हैं। पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक पृथ्वी, पानी, अग्नि, निगोद के जीव भी तिर्यञ्च कहलाते हैं। इनमें कुछ जलवासी, कुछ स्थलवासी, कुछ आकाश में गमन करने वाले हैं। तिर्यञ्चों का निवास मध्यलोक के सभी असंख्यात द्वीप समद्रों में है। इतना विशेष है, कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय नहीं होते। अन्तिम स्वयंभूरमण समुद्र में संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पाये जाते हैं अतः यह सारा मध्य लोक तिर्यक् लोक कहलाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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