Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 244
________________ २३० भगवती सूत्र : एक परिशीलन देव-आभ्यन्तर कारण देवगति नाम कर्म का उदय होने पर नाना प्रकार की बाह्य विभूति से जो युक्त हैं और जिनका प्रकाशमान दिव्य शरीर है, वे देव कहलाते हैं। दोष-स्व-पर-परिणाम जनित अज्ञान आदि दोष हैं। द्रव्य-जो अपने मूल स्वभाव को न छोड़ता हुआ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सम्बद्ध रहकर गुण और पर्याय से सहित होता है, वह द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव ये छह मूल द्रव्य हैं। धर्म-जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख में धारण करे, वह धर्म है। अथवा निज शुद्धात्मा में रमण ही धर्म है। धर्म-अधर्म द्रव्य-ये दोनों द्रव्य लोकाकाश प्रमाण व्यापक, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्त द्रव्य हैं। ये जीव व पुद्गल की गति और स्थिति में उदासीन रूप से सहकारी हैं, यही कारण है कि जीव व पुद्गल स्वयं समर्थ होते हुए भी इनकी सीमा से बाहर नहीं जा सकते। जैसे मछली चलने में स्वयं समर्थ होते हुए भी जल से बाहर नहीं जा सकती। इसी प्रकार इन दोनों द्रव्यों के कारण ही एक अखण्ड आकाश, लोकाकाश और अलोकाकाश रूप दो विभागों में विभक्त हो गया है। ध्यान-उत्तम संहनन वाले का एक विषय में-एक अग्र में-अनियमित भोजन-गमनादि रूप अनेक क्रियाओं में से किसी एक ही क्रिया के कर्ता रूप में चित्तवृत्ति का निरोध होना ध्यान है। यह अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रह सकता है, इससे अधिक नहीं। इस ध्यान के लक्षण में जो “एकाग्र" का ग्रहण है वह व्यग्रता की निवृत्ति के लिए है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है, ध्यान नहीं। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है। ध्यान के चार विकल्प हैंआर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल। कितने ही आचार्यों ने ध्यान के तीन ही भेद माने हैं क्योंकि जीव का आशय तीन प्रकार ही होता है। उन तीनों में प्रथम पुण्य रूप शुभ आशय है, द्वितीय उसका विपक्षी पाप रूप आशय और तृतीय शुद्धोपयोग आशय। ध्रुवबन्धप्रकृति-जिस कर्म प्रकृति का प्रत्यय, जिस किसी भी जीव में अनादि व ध्रुव रूप से पाया जाता है, वह ध्रुवबन्धी प्रकृति है। ध्रुवबन्धी प्रकृति का जब तक उसका कारण विद्यमान रहे तब तक निरन्तर बन्ध होता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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