Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २२५ अशुभ उपयोग संसार का कारण होने से परमार्थतः हेय है। और शुद्धोपयोग मोक्ष का कारण होने से सर्वथा उपादेय है।
उपशम-कर्मों के उदय को कुछ समय के लिये रोक देना। उतने समय तक जीव के परिणाम अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं परन्तु अवधि पूरी होने पर नियम से पुनः वह कर्म उदय में आ जाते हैं और जीव के परिणाम पुनः गिर जाते हैं। उपशम-करण का सम्बन्ध केवल मोहकर्म व तज्जन्य परिणामों से ही है, ज्ञानादि अन्य भावों से नहीं, क्योंकि रागादि विकारों में क्षणिक उतार-चढ़ाव सम्भव है। कर्मों के दबने को उपशम और उससे उत्पन्न जीव के शुद्ध परिणामों को औपशमिक भाव कहते हैं।
उपादान-जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत होता है, उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे-मिट्टी घड़े का उपादान कारण है अथवा दूध, दही का उपादान कारण है।
ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक के ऊपर जो खड़े मृदंग के आकारवत् लोक है वह ऊर्ध्वलोक है। सुमेरु पर्वत की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है।
ऋजुसूत्रनय-त्रिकालवर्ती वस्तु को छोड़कर जो केवल वर्तमान कालभावी पर्याय को ही वस्तु मानता है उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं। अतीत पदार्थों के नष्ट हो जाने से तथा अनागत पदार्थों के उत्पन्न न होने से ये दोनों ही व्यवहार के अयोग्य हैं अतः यह नय वर्तमान एक समय मात्र में विद्यमान पर्याय को विषय करता है।
एवम्भूतनय-जो द्रव्य जिस प्रकार की क्रिया से परिणत हो उसका उसी प्रकार से निश्चय करना। जैसे किसी व्यक्ति के लिये राजा या नृप शब्द का प्रयोग करना तभी ठीक होगा, जबकि उसमें शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ भी घटित हो रहा हो।
औदारिक शरीर-उदार का अर्थ स्थूल है जिसका प्रयोजन उदार या स्थूल है वह औदारिक शरीर कहलाता है अथवा स्थूल द्रव्यों से जो शरीर निर्मित होता है वह औदारिक है। औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्यों का होता है।
कर्म-कर्म शब्द के अनेक अर्थ हैं। यथा-कर्म कारक, क्रिया तथा जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कन्ध। कर्म कारक जगप्रसिद्ध है परन्तु कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैन सिद्धान्त ही उसका विशेष प्रकार से
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