Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १८१ गुण से वह पूरण-गलन गुण वाला है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और जीवास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं। आकाशास्तिकाय के प्रदेश अनन्त हैं, पुद्गलास्तिकाय में से किसी के संख्यात, किसी के असंख्यात और किसी के अनन्त हैं।
-भग. शतक २, उ. १0, सूत्र ५३/६२
धर्मास्तिकाय गौतम ने भगवान से पूछा-भगवन् ! गति-सहायक तत्त्व अर्थात् धर्मास्तिकाय से जीवों को क्या लाभ है ? __ भगवान ने कहा-गौतम ! यदि गति का सहारा नहीं होता तो कौन आता और कौन जाता ? शब्द की तरंगें किस प्रकार फैलती ? आँखें किस प्रकार खुलतीं ? कौन मनन करता ? कौन बोलता ? कौन हिलता-डुलता ? यह सम्पूर्ण विश्व अचल ही होता। जो चल है उन सभी का आलम्बन गति-सहायक तत्त्व ही है।
-भगवती १३/४ अधर्मास्तिकाय गौतम-भगवन् ! कृपा कर यह बतायें कि स्थिति सहायक तत्त्व अधर्मास्तिकाय से जीवों को क्या लाभ है?
भगवान-गौतम ! यदि स्थिति का सहारा नहीं होता तो खड़ा कौन होता? कौन बैठता ? सोना किस प्रकार होता ? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता ? कौन निस्पन्द बनता ? निमेष कैसे होता? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर है उन सभी का आलम्बन स्थिति सहायक तत्त्व अधर्मास्तिकाय ही है।
-भगवती १३/४ आकाशद्रव्य जैन दर्शन के अनुसार आकाश एक स्वतंत्र द्रव्य है। उसका गुण शब्द नहीं। शब्द तो पुद्गलों के संघात और भेद का कार्य है। आकाश का गुण अवगाहन है। वह स्वयं आलम्बन है। सभी द्रव्य स्वरूप की दृष्टि से स्वप्रतिष्ठित हैं किन्तु क्षेत्र या आयतन की दृष्टि से वे आकाश में प्रतिष्ठित हैं अतः आकाश सभी द्रव्यों का भाजन है।
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