Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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७० भगवती सूत्र : एक परिशीलन किये। प्रत्येक वाद के पीछे क्या दृष्टिकोण रहा हुआ है, उस वाद की मर्यादा क्या है ? इस बात को नयवाद के रूप में दार्शनिकों के सामने प्रस्तुत किया। तथागत बुद्ध ने लोक की सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा है, जब कि भगवान महावीर ने लोक को सान्त और अनन्त अपेक्षाभेद से बताया।
इसी तरह लोक शाश्वत है या अशाश्वत है ? यह प्रश्न भगवतीसूत्र, शतक ९, उद्देशक ६ में गणधर गौतम ने जमाली से पूछा। प्रश्न सुनकर जमाली सकपका गये। तब भगवान् महावीर ने कहा-लोक शाश्वत है और अशाश्वत भी है। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं जब लोक किसी न किसी रूप में न हो। अतः वह शाश्वत है। लोक हमेशा एक रूप नहीं रहता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कारण अवनति और उन्नति होती रहती है। इसलिये वह अशाश्वत भी है। भगवान् महावीर ने लोक को पंचास्तिकाय रूप माना। जीव और शरीर के भेदाभेद पर भी अनेकान्तवाद की दृष्टि से जो समाधान किया है, वह भी अपूर्व है। उन्होंने आत्मा को शरीर से भिन्न और अभिन्न दोनों कहा है।
किन्तु बुद्ध इस सम्बन्ध में भी स्पष्ट नहीं हो सके। उनका अभिमत था कि यदि शरीर को आत्मा से भिन्न मानते हैं तब ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं, यदि अभिन्न मानते हैं तो भी ब्रह्मचर्यवास सम्भव नहीं। इसलिये दोनों अन्तों को छोड़कर उन्होंने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया २०३ तथागत बुद्ध का यह चिन्तन था कि यदि आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न माना जाये तो फिर उसे कायकृत कर्मों का फल नहीं मिलना चाहिये। अत्यन्त भेद मानने पर अकृतागम दोष की आपत्ति है। यदि अत्यन्त अभिन्न मानें तो जब शरीर को जला कर नष्ट कर देते हैं तो आत्मा भी नष्ट हो जायेगा। जब आत्मा नष्ट हो गया है तो परलोक सम्भव नहीं है। इस तरह कृतप्रणाश दोष की आपत्ति होगी। इन दोषों के बचने के लिये उन्होंने भेद और अभेद दोनों पक्ष ठीक नहीं माने।
पर महावीर ने इन दोनों विरोधी वादों का समन्वय किया। एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानने पर जिन दोषों का सम्भावना थी, वे दोष उभयवाद मानने पर नहीं होते। जीव और शरीर का भेद मानने का कारण यही है। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में रहती है। सिद्धावस्था में जो आत्मा है, वह शरीरमुक्त है। आत्मा और शरीर का जो अभेद माना
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