Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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६८ भगवती सूत्र : परिशीलन कहा-उपर्युक्त प्रश्न पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे पूछे और उनका सही समाधान पाने के लिये तुम मेरे पास उपस्थित हुए हो। उनका समाधान इस प्रकार है
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से लोक चार प्रकार का है। द्रव्य की अपेक्षा वह एक और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटा-कोटि योजन है, इसका अन्त है। काल की अपेक्षा यह किसी दिन नहीं था ऐसा नहीं है, किसी दिन नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है। वह तीनों कालों में रहेगा और इसका अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा यह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पर्यव रूप है। अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु पर्यव और अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा लोक सान्त है, काल और भाव की अपेक्षा यह अनन्त है। इस प्रकार लोक सान्त भी है और अनन्त भी।
जीव के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन किया जाय तो द्रव्य की दृष्टि से जीव एक और सान्त है, क्षेत्र की दृष्टि से वह असंख्यात प्रदेशी और सान्त है। काल की दृष्टि से वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा अतः नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं। भाव की दृष्टि से वह अनन्त ज्ञान पर्यव रूप है यावत् अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। इसका अन्त नहीं है। इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव अन्तयुक्त है। काल और भाव का दृष्टि से अन्तरहित है। ___ मोक्ष के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जानना होगा। द्रव्य की दृष्टि से मोक्ष एक है और सान्त है। क्षेत्र की दृष्टि से पैंतालीस लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है और इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। इसका अन्त है। काल की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा। भाव की अपेक्षा से यह अन्त-रहित है। द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से मोक्ष अन्तयुक्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अन्तरहित है। __इसी तरह सिद्ध अन्तयुक्त है या अन्तरहित है ? इसके उत्तर हैं- द्रव्य की दृष्टि से सिद्ध एक है और अन्तयुक्त है। क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध असंख्य प्रदेश-अवगाढ़ होने पर भी अन्तयुक्त है। काल की दृष्टि से सिद्ध की आदि तो है पर अन्त नहीं है। भाव की दृष्टि से सिद्ध ज्ञानदर्शन पर्यव रूप है और उसका अन्त नहीं है।
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