Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन १५७
शील और श्रुत का समन्वय
गौतम-भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, प्ररूपणा करते हैंशील ही श्रेष्ठ है, श्रुत ही श्रेष्ठ है, शील निरपेक्ष श्रुत ही श्रेष्ठ है अथवा श्रुत निरपेक्ष शील ही श्रेष्ठ है तो हे भगवन् ! यह किस प्रकार है ?
भगवान - गौतम ! मेरा एवं सभी सर्वज्ञों का सिद्धान्त इस प्रकार है - कोई पुरुष शील सम्पन्न है परन्तु श्रुत सम्पन्न नहीं, कोई पुरुष श्रुत सम्पन्न है, शील सम्पन्न नहीं, कोई पुरुष शील सम्पन्न भी है और श्रुत सम्पन्न भी है, कोई शील सम्पन्न भी नहीं श्रुत सम्पन्न भी नहीं ।
इनमें से प्रथम भंग का स्वामी "देश आराधक" है वह चारित्र की आराधना करता है, परन्तु विशेष रूप से ज्ञानवान् नहीं है। इस भंग का स्वामी सम्यग्दृष्टि है।
दूसरे भंग का स्वामी पापादि से अनिवृत्त होते हुए भी धर्म को जानता है, अतः वह “देशविराधक" है। इस भंग का स्वामी " अविरत सम्यग्दृष्टि" है।
तृतीय भंग का स्वामी "सर्वाराधक" है। वह पापों से उपरत भी है और धर्म को भी जानता है।
चतुर्थ भंग का स्वामी "सर्वविराधक" है क्योंकि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय में से किसी की भी आराधना नहीं करता ।
सारांश यह है कि कोरा ज्ञान श्रेयस् की एकांगी आराधना है। कोरा शील भी वैसा ही है। ज्ञान और शील दोनों नहीं वह श्रेयस् की विराधना है, आराधना नहीं है। ज्ञान और शील दोनों की पूर्ण संगति ही श्रेयस् की सर्वांगीण आराधना है।
- भग. शतक ८, उ. १०, सूत्र १३ तीर्थ
एक बार गौतम स्वामी ने जिज्ञासा पूर्वक भगवान् के सन्निकट जाकर -भन्ते ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं अथवा तीर्थङ्कर को तीर्थ ?
पूछा
महावीर-गौतम ! अर्हत् तो अवश्य ही तीर्थङ्कर है परन्तु चार प्रकार का संघ साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप तीर्थ है।
- भगवती शतक २०, उ.८, सूत्र १३
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