Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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लोकवाद
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विश्व-स्थिति का मूल आधार जैन दर्शन के अनुसार यह जगत अनादि अनन्त है। इसकी मात्रा न कभी घटती है और न कभी बढ़ती है, केवल रूपान्तर होता है।
विश्व-स्थिति के आधारभूत तत्त्व क्या हैं? शिष्य की इस जिज्ञासा पर भगवान ने मुख्यतः नौ कारण बताये
(१) पुनर्जन्म-जीव मरकर पुनः-पुनः जन्म लेते हैं। (२) कर्मबन्ध-प्रवाहरूप से जीव अनादिकाल से कर्म बांधता रहता है।
(३) मोहनीय-कर्मबन्ध-प्रवाहरूप से जीव अनादिकाल से निरन्तर मोहनीय कर्म बांधता रहता है।
(४) जीव अजीव का अत्यन्ताभाव-तीनों कालों में ऐसा कभी नहीं हो सकता कि जीव अजीव हो जाए और अजीव जीव हो जाए।
(५) त्रस-स्थावर-अविच्छेद-ऐसा भी तीनों कालों में कभी भी संभव नहीं है कि सभी त्रस जीव स्थावर बन जाएं और सभी स्थावर जीव त्रस बन जाएं, या सभी जीव केवल त्रस या केवल स्थावर हो जाएं।
(६) लोकालोक पृथक्त्व-ऐसा भी तीनों कालों में कभी संभव नहीं है 'कि लोक अलोक हो जाए और अलोक लोक हो जाए।
(७) लोकालोक अन्योन्याप्रवेश-ऐसा भी तीनों कालों में कभी संभव नहीं है कि लोक अलोक में प्रवेश करे और अलोक लोक में प्रवेश करे।
(८) लोक और जीवों का आधार-आधेय सम्बन्ध-जितने क्षेत्र का नाम लोक है उतने क्षेत्र में जीव है और जितने क्षेत्र में जीव है उतने क्षेत्र का नाम लोक है।
(९) लोक मर्यादा-जितने क्षेत्र में जीव और पुद्गल गति कर सकते हैं उतना क्षेत्र लोक की मर्यादा (सीमा) है।
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