Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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१०२ भगवती सूत्र : एक परिशीलन विशेष के लिए पर्याय शब्द का प्रयोग हुआ है। सामान्य भी तिर्यक्-सामान्य
और ऊर्ध्वतासामान्य के रूप में दो प्रकार का है। एक ही काल में स्थित अनेक देशों में रहने वाले अनेक पदार्थों में समानता का होना तिर्यक्सामान्य है। जब कालकृत विविध अवस्थाओं में किसी विशेष द्रव्य का एकत्व या अन्वय (समानता) विवक्षित हो या एक विशेष पदार्थ की अनेक अवस्थाओं की एकता या ध्रौव्य अपेक्षित हो, वह एकत्वसूचक अंश ऊर्ध्वतासामान्य है। जीव के संसारी और मुक्त इन दो भेदों में रहने वाला जीवत्व या संसारी के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक ५ भेदों में रहा हुआ संसारी जीवत्व आदि तिर्यक् सामान्य हैं। द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है, यह जीव का ऊर्ध्वतासामान्य है। __गणधर गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की'द्रव्य कितने प्रकार का है?" समाधान की भाषा में भगवान् ने कहा-'द्रव्य के जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य ये दो प्रकार हैं।' पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की"अजीव द्रव्य कितने प्रकार का है?' समाधान के रूप में कहा गया- वह रूपी और अरूपी के भेद से दो प्रकार का है।' पुनः जिज्ञासा उभरी-'अजीव द्रव्य संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ?' समाधान दिया गया-'वे अनन्त हैं, चूंकि परमाणु पुद्गल अनन्त हैं, द्विप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अनन्त हैं।' उसी तरह जीव द्रव्य के सम्बन्ध में भी गौतम ने पृच्छा की कि वह संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं? समाधान दिया गया-जीव अनन्त हैं, क्योंकि नैरयिक, चार स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, असंज्ञी मनुष्य तथा देव ये सभी प्रत्येक पृथक्-पृथक् असंख्यात हैं। संज्ञी मनुष्य संख्यात हैं। वनस्पतिकायिक जीव और सिद्ध अनन्त हैं। अतः समस्त जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्त हैं। ___ इसी प्रकार भगवतीसूत्र शतक १४, उद्देशक ४ में जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम के सम्बन्ध में प्रकाश डाला गया है। शतक १७, उद्देशक २ में जीव और जीवात्मा ये दोनों पृथक् नहीं हैं, ऐसा स्पष्ट किया गया है, शतक ७, उद्देशक ८ में हाथी और कुंथुआ दोनों की काया में अन्तर है तो क्या उनके जीव समान हैं या असमान हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने फरमाया कि दोनों में जीव समान हैं, जैसे दीपक का प्रकाश स्थान के अनुसार छोटा और बड़ा होता है वैसे ही शरीर के अनुसार आत्मप्रदेश संकुचित और विस्तृत होते हैं। शतक १, उद्देशक २ में जीव
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