Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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१०४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन करते रहे हैं। विस्तारभय से हम उस चिन्तन को यहाँ प्रस्तुत न कर यह बताना चाहेंगे कि ज्ञान आत्मा का निज स्वरूप है, ज्ञान एक ऐसा गुण है जिसके बिना आत्मा आत्मा नहीं रहता। निगोद अवस्था में भी, जहाँ आत्मा के असंख्यात प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म से आच्छन्न होते हैं, वहाँ मूल ८ रुचक प्रदेश सदा ज्ञानावरणीय कर्म से अलिप्त रहते हैं।
भगवतीसूत्र में भी ज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन प्राप्त है। जिज्ञासु पाठक भगवतीसूत्र शतक ८, उद्देशक २ का गहराई से अवलोकन करें। शतक १, उद्देशक १ में गणधर गौतम और भगवान् महावीर का एक सुन्दर संवाद है, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र वर्तमान भव तक सीमित रहता है परन्तु ज्ञान इस लोक, परलोक तथा तदुभयलोक में भी रह सकता है। .
जैन आगमों में जहाँ ज्ञानचर्चा की गई है वहाँ प्रमाणचर्चा भी की गई है। ज्ञान को प्रामाणिकता देने के लिए सम्यक्त्व और मिथ्यात्व पर चिन्तन करते हुए यह प्रतिपादित किया कि सम्यग्दर्शी का ज्ञान, ज्ञान है और वही ज्ञान मिथ्यादर्शी के लिए अज्ञान है। ज्ञान के ५ और अज्ञान के ३ भेद प्रतिपादित किए गए हैं।
प्रमाण-चर्चा आगमसाहित्य में नैयायिकदर्शन की तरह कहीं पर चार प्रमाणों का उल्लेख है तो कहीं तीन प्रमाणों का उल्लेख है।
स्थानांगसूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान पर हेतु शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष, अनुमान आदि को हेतु शब्द से व्यवहृत किया है।२९३ निक्षेप दृष्टि से स्थानांग में द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण
और भावप्रमाण ये चार भेद किये हैं।२९४ स्थानांग में प्रमाण के तीन भेद भी प्राप्त होते हैं। वहाँ पर प्रमाण के स्थान पर 'व्यवसाय' शब्द का प्रयोग हुआ। व्यवसाय का अर्थ 'निश्चय' है। व्यवसाय के प्रत्यक्ष, प्रत्ययिक और आनुगामिक ये तीन प्रकार है।२९५ जैन आगमसाहित्य में ही नहीं, अन्य दर्शनों में भी प्रमाण के तीन और चार प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं। सांख्यदर्शन में तीन प्रमाणों का निरूपण है, तो न्यायदर्शन में चार प्रमाण प्रतिपादित हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाण के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार के साथ चर्चा है। भारतीय दार्शनिकों में प्रमाण की संख्या के सम्बन्ध में एकमत नहीं रहा है।
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