Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ५९ भगवती, स्थानांग आदि में धर्मध्यान के आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार कहे हैं। धर्मध्यान के आज्ञारुचि, निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि-ये चार लक्षण हैं। इसी प्रकार धर्मध्यान को सुस्थिर रखने के लिये धर्मध्यान के चार आलम्बन भी बताये गये हैं-१. वाचना, २. पृच्छना, ३. परिवर्तना और ४. धर्मकथा। धर्मकथा के समय जो चिन्तन तल्लीनता प्रदान करता है, उस चिन्तन को हम अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनुप्रेक्षा के भी चार प्रकार है-१. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा एवं ४. संसारानुप्रेक्षा। इन चारों भावनाओं से मन में वैराग्य भावना तरंगित होती है। भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण न्यून हो जाता है। धर्म-ध्यान से जीवन में आनन्द का सागर ठाठे मारने लगता है।
धर्मध्यान मे मुख्य तीन अंग है-ध्यान, ध्याता और ध्येय। ध्यान का अधिकारी ध्याता कहलाता है। एकाग्रता ध्यान है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है। चंचल मन वाला व्यक्ति ध्यान नहीं कर सकता। जहाँ आसन की स्थिरता ध्यान में अपेक्षित है, वहाँ मन की स्थिरता भी बहुत अपेक्षित है। इसीलिये ज्ञानार्णव में लिखा है, जिसका चित्त स्थिर हो गया है, वही वस्तुतः ध्यान का अधिकारी है। ध्येय के सम्बन्ध में तीन बातें हैं-एक परावलम्बन, जिसमें दूसरी वस्तुओं का अवलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है। श्रमण भगवान महावीर अपने साधनाकाल में एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित करके ध्यानमुद्रा में खड़े रहे थे।१५७ जब एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित होती है तो मन स्थिर हो जाता है। इसे त्राटक भी कह सकते हैं। ___ध्यान का दूसरा प्रकार स्वरूपावलम्बन है, इसमें बाहर से दृष्टि हटाकर नेत्रों को बन्द कर विविध प्रकार की कल्पनाओं से यह ध्यान किया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में, आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत जो ध्यान के प्रकार हैं और उनकी धारणाओं के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया है, वह सब स्वरूपावलम्बन ध्यान के अन्तर्गत ही है। हमने 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखा है। जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें।
तीसरा प्रकार है-निरवलम्बन। इसमें किसी भी प्रकार का कोई आलम्बन
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