Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
View full book text
________________
६० भगवती सूत्र : एक परिशीलन नहीं होता। मन विचार, विकार और विकल्पों से शून्य होता है। आचार्य हेमचन्द्र ने जो रूपातीत ध्यान प्रतिपादित किया है-वह यही है। इसमें निरंजन, निराकार सिद्धस्वरूप का ध्यान किया जाता है और आत्मा स्वयं कर्म-मल से मुक्त होने का अभ्यास करता है।१५८ इस ध्यान में साधक यह समझता है कि मैं अलग हूँ और इन्द्रियाँ व मन अलग हैं। साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। रूप से अरूप की ओर बढ़ने के लिये अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता है। रूपातीत ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब भेदरेखा स्वतः ही समाप्त हो जाती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान-तीनों एकाकार हो जाते हैं। जैसे सागर में नदियाँ मिलकर एकाकार हो जाती हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी विभिन्न टीकाओं में ध्यान का सारगर्भित विश्लेषण प्रतिपादन किया गया है।१५९
ध्यान का चतुर्थ प्रकार शुक्लध्यान है। यह ध्यान की परम विशुद्ध अवस्था है। जब साधक के अन्तर्मानस से कषाय की मलिनता मिट जाती है, तब निर्मल मन से जो ध्यान किया जाता है, वह शुक्लध्यान है। शुक्लध्यानी का अन्तर्मानस वैराग्य से सराबोर होता है। उसके तन पर यदि कोई प्रहार करता है, उसका छेदन या भेदन करता है तो भी उसको संक्लेश नहीं होता। देह में रहकर भी वह देहातीत स्थिति में रहता है। शुक्लध्यान के शुक्ल और परमशुक्ल ये दो भेद हैं। चतुर्दश पूर्वधर तक का ध्यान शुक्लध्यान है और केवलज्ञानी का ध्यान परमशुक्लध्यान है।१६०
स्वरूप की दृष्टि से शुक्लध्यान के चार प्रकार भगवती,१६१ स्थानांग,१६२ समवायांग१६३ आदि में बताये हैं
१. पृथक्त्ववितर्कसविचार-पृथक्त्व का अर्थ है-भेद और वितर्क का तात्पर्य है-श्रुत। प्रस्तुत ध्यान में श्रुतज्ञान के आधार पर पदार्थ का सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिन्तन किया जाता है। द्रव्य, गुण, पर्याय पर चिन्तन करते हुए द्रव्य से पर्याय पर और पर्याय से द्रव्य पर चिन्तन किया जाता है। इस ध्यान में भेदप्रधान चिन्तन होता है।
२. एकत्ववितर्क अविचार-जब भेदप्रधान चिन्तन में साधक का अन्तर्मानस स्थिर हो जाता है तब वह अभेदप्रधान चिन्तन की ओर कदम बढ़ाता है। वह किसी एक पर्यायरूप अर्थ पर चिन्तन करता है तो उसी पर्याय पर उसका चिन्तन स्थिर रहेगा। जिस स्थान पर तेज हवा का अभाव होता है, वहाँ पर दीपक की लौ इधर-उधर डोलती नहीं है। उस दीपक को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org