Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
View full book text
________________
भगवती सूत्र : एक परिशीलन ५३ ९. आयावए-आतापना लेवे। १०. अवाउडए-वस्त्र आदि का त्याग करे। ११. अकंडुयाए-शरीर पर खुजली न करे। १२. अणिरट्ठहए-थूक भी न थूके। १३. सव्वगायपरिकम्मे-सर्व शरीर की देखभाल (परिकर्म) से रहित रहे। १४. विभूसाविप्पमुक्के-विभूषा से रहित रहे।
तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीया वृत्ति १२७ मूलाराधना,१२८ भगवती आराधना,१२९ बृहत्कल्पभाष्य१३० प्रभृति ग्रन्थों में कायक्लेश के गमन, स्थान, आसन, शयन और अपरिकर्म आदि भेदोपभेदों का वर्णन है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार कुछ कायक्लेश तप गृहस्थ श्रावकों को नहीं करने चाहिये ।१३१
बाह्य तप का छठा प्रकार प्रतिसंलीनता है। प्रतिसंलीनता का अर्थ हैआत्मलीनता। पर-भाव में लीन आत्मा को स्व-भाव में लीन बनाने की प्रक्रिया ही वस्तुतः संलीनता है। इन्द्रियों को, कषायों को, मन, वचन, काया के योगों को बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना संलीनता है। प्रतिसंलीनता तप के चार प्रकार हैं-इन्द्रियप्रतिसंलीनता, कषायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसंलीनता, विविक्तशयनासनसेवना।१३२
तप के ये छह प्रकार बाह्य तप के अन्तर्गत हैं।
आभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं, उनमें सर्वप्रथम प्रायश्चित्त है। आचार्य भद्रबाह१३३ ने लिखा है-जो पाप का छेदन करता है, वह प्रायश्चित्त है। पाप-विशुद्धि करने की क्रिया प्रायश्चित्त है। तत्त्वार्थराजवार्तिक१३४ में लिखा है-अपराध का नाम प्रायः है और चित्त का अर्थ है शोधन। जिस क्रिया से अपराध की शुद्धि हो वह प्रायश्चित्त है। मानव प्रमादवश कभी दोष का सेवन कर लेता है, पर जिसकी आत्मा जागरूक है, धर्म-अधर्म का विवेक रखती है, परलोक सुधार की भावना है, अनुचित आचरण के प्रति जिसके मन में पश्चात्ताप है, दोष के प्रति ग्लानि है, वह गुरुजनों के समक्ष दोष को प्रकट कर प्रायश्चित्त की प्रार्थना करता है। गुरु दोषविशुद्धि के लिए तपश्चरण का आदेश देते हैं। यहाँ यह समझना होगा कि प्रायश्चित्त और दण्ड में अन्तर है। दण्ड दिया जाता है और प्रायश्चित्त लिया जाता है। दण्ड अपराधी के मानस को झकझोरता नहीं। दण्ड केवल बाहर अटक कर ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org