Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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भगवती सूत्र : एक परिशीलन २९ मानव विचिकित्सा कर रहे हैं, वह तत्त्व क्या है ? यम भौतिक प्रलोभन देकर उसे टालने का प्रयास करते हैं पर बालक नचिकेता दृढ़ता के साथ कहता है - मुझे धन-वैभव कुछ भी नहीं चाहिये। आप तो मेरे प्रश्न का समाधान कीजिए। मुझे वही इष्ट है । ८२ श्रमण भगवान् महावीर ने साधना के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग पर जो मुस्तैदी से कदम बढ़ाए, उसमें भी आत्मजिज्ञासा ही मुख्य थी । आचारांग के प्रारम्भ में आत्म-जिज्ञासा का ही स्वर झंकृत हो रहा है। साधक सोचता है - मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और यहाँ से कहाँ जाऊँगा ? तथागत बुद्ध ने तो साधनामार्ग में प्रवेश करते ही यह प्रतिज्ञा ग्रहण की कि जब तक मैं जन्म-मरण के किनारे का पता नहीं लगा लूँगा, तब तक कपिलवस्तु में प्रवेश नहीं करूँगा ।
इस तरह आश्चर्य, जिज्ञासा, संशय, कौतूहल ये सभी मानव को दर्शन की ओर उत्प्रेरित करते रहे हैं। सुदूर अतीत काल से लेकर वर्तमान तक ' इंटलेक्चुअल क्यूरियॉसिटी' (Intellectual Curiosity), बौद्धिक कौतूहल के कारण ही मानव की ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई है।
गणधर गौतम के अन्तर्मानस में बौद्धिक कौतूहल तीव्रतम रूप से दिखलाई देता है। वे आत्मा-परमात्मा, जीव जगत्, कर्म प्रभृति विषयों में ही नहीं, सामान्य से सामान्य विषय व प्रसंग को देखकर भी उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ललक उठते हैं। उस विषय के तलछट तक पहुँचने के लिए उनके मन में कौतूहल होता है। वे अनन्त श्रद्धा, संशय और कुतूहल से प्रेरित होकर स्वस्थान से चल कर जहाँ भगवान् महावीर विराजित होते हैं, वहाँ पहुँचते हैं, विनयपूर्वक जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं- 'कहमेयं भंते' हे भगवान् ! यह बात कैसे है ? कभी-कभी तो वे विषय को और अधिक स्पष्ट कराने के लिए प्रतिप्रश्न करते हैं-- 'केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ' - ऐसा आप किस हेतु से कहते हैं ? वे हेतु तक जाकर तर्क की दृष्टि से उसका समाधान पाना चाहते हैं । इस प्रकार प्रतिप्रश्न करते हुए तथा कुतूहल को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, वे बालक की तरह संकोच - रहित होकर प्रश्न करते हैं। उनकी प्रश्न-शैली तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक है।
विज्ञान में 'कथम्' (How), 'कस्मात् ' 'केन' (Why) इन दो सूत्रों को पकड़ कर वस्तुस्थिति के अन्तस्तल में प्रवेश किया जाता है और निरीक्षण-परीक्षण कर रहस्यों को उद्घाटित किया जाता है। गणधर गौतम भी प्रायः इन दो वाक्यों के आधार पर अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं पर
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