Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
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३० भगवती सूत्र : एक परिशीलन उनकी जिज्ञासा की महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि वे केवल प्रश्न के लिए प्रश्न नहीं करते वरन् समाधान के लिए प्रश्न करते हैं। उनकी जिज्ञासा में सत्य की बुभुक्षा है। उनके संशय में समाधान की गूंज है। उनके कुतूहल में विश्व-वैचित्र्य को समझने की छटपटाहट है। उनकी सच्ची जिज्ञासु वृत्ति को देखकर ही भगवान महावीर प्रत्येक प्रश्न का समाधान करते हैं और समाधान पाकर गणधर गौतम कृतकृत्य हो जाते हैं तथा विनयपूर्वक नम्र शब्दों में निवेदन करते हैं-सेवं भन्ते ! सेवं भन्ते ! तहमेयं भन्ते ! अर्थात् हे प्रभो ! जैसा आपने कहा है-वह पूर्ण सत्य है, मैं उस पर श्रद्धा करता हूँ। महावीर के उत्तर पर श्रद्धा से अभिभूत होकर उन्होंने जो अनुगूंज की है, वस्तुतः यह प्रश्नोत्तर की आदर्श पद्धति है। उत्तरदाता के प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा का भाव व्यक्त किया गया है, जो बहुत ही आवश्यक है। इसमें प्रश्नकर्ता के समाधान की स्वीकृति भी है और हृदय की अनन्त श्रद्धा भी।
विषय वर्णन की दृष्टि से भगवतीसूत्र में विविध विषयों का संकलन है। उन सभी विषयों पर प्रस्तुत ग्रन्थ में लिखना सम्भव ही नहीं है। क्योंकि भगवतीसूत्र अपने आप में स्वयं एक विराट् आगम है। इसमें गणधर गौतम के तथा अन्यान्य साधकों के हजारों प्रश्न और समाधान हैं। तथापि विषय वर्णन की दृष्टि से संक्षेप में निम्न खण्डों में इसकी विषयवस्तु को विभक्त कर सकते हैं
प्रथम साधना खण्ड में हम उन सभी प्रसंगों को ले सकते हैं जो साधना से सम्बन्धित हैं। साधना का प्रारम्भ होता है-सत्संग से। सर्वप्रथम व्यक्ति सन्त के पास पहुंचता है। सन्त के पास पहुँचने से उसको उपदेश सुनने को मिलता है। उपदेश सुनकर उसे सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होता है। सम्यग्ज्ञान समुत्पन्न होने पर वह जड़ और चेतन के स्वरूप को समझकर भेदविज्ञान से यह समझता है कि जड़ तत्त्व पृथक् है और चेतन तत्त्व पृथक् है। दोनों तत्त्व पय-पानीवत् मिल चुके हैं। भेदविज्ञान से वह दोनों की पृथक् सत्ता को समझता है और उनको पृथक्-पृथक् करने के लिये प्रत्याख्यान स्वीकार करता है। संयम की साधना करता है, जिससे वह आने वाले आश्रव का निरुन्धन कर लेता है
और जो अन्दर विजातीय तत्त्व रहा हुआ है उसे धीरे-धीरे तपश्चरण द्वारा नष्ट करने से मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापारों का निरुन्धन कर वह आत्मा सिद्धि को वरण करता है।८३ यह है सत्संग की महिमा और गरिमा। सत्, आत्मा है। उसका संग ही वस्तुतः सत्संग है। अनन्त काल से
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