Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
View full book text
________________
भगवती सूत्र : एक परिशीलन ३१ आत्मा पर-संग में उलझा रहा। जब आत्मा पर-संग से मुक्त होता है और स्व-संग करता है, तभी वह मुक्त बनता है। मुक्ति का अर्थ है पर-संग से सदा-सर्वदा के लिये मुक्त हो जाना। इस तथ्य को शास्त्रकार ने बहुत ही सरल रूप से प्रस्तुत किया। ___सत्संग करने वाला साधक ही धर्म मार्ग को स्वीकार करता है। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि केवलज्ञानी से या उनके उपासकों से बिना सुने जीव को वास्तविक धर्म का परिज्ञान होता है? समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-गौतम ! किसी जीव को होता है और किसी को नहीं होता। यही बात सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के सम्बन्ध में भी कही गई है।८४ प्रश्नोत्तरों से यह स्पष्ट है कि धर्म और मुक्ति का आधार आन्तरिक विशुद्धि है। जब तक आन्तरिक विशुद्धि नहीं होती तब तक मुक्ति सम्भव नहीं है। जिनका मानस सम्प्रदायवाद से ग्रसित है, उनके लिये प्रस्तुत वर्णन चिन्तन की दिव्य ज्योति प्रदान करेगा। ज्ञान और क्रिया ___ जैनधर्म ने न अकेले ज्ञान को महत्त्व दिया है और न अकेली क्रिया को। साधना की परिपूर्णता के लिये ज्ञान और क्रिया दोनों का समन्वय आवश्यक है। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि सुव्रत और कुव्रत में क्या अन्तर है? समाधान देते हुए भगवान महावीर ने कहा-जो साधक व्रत ग्रहण कर रहा है उसे यदि यह परिज्ञान नहीं है कि यह जीव है या अजीव है? त्रस है या स्थावर है? उसके व्रत सुव्रत नहीं हैं। क्योंकि जब तक परिज्ञान नहीं होगा तब तक वह व्रत का सम्यक् प्रकार से पालन नहीं कर सकेगा। परिज्ञानवान व्यक्ति का व्रत ही सुव्रत है। वही पूर्ण रूप से व्रत का आराधन कर सकता है।८५ ___ गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि शील श्रेष्ठ है तो किन्हीं चिन्तकों का कथन है कि श्रुत श्रेष्ठ है। तो तृतीय प्रकार के चिन्तक शील और श्रुत दोनों को श्रेष्ठ मानते हैं। आपका इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है? ___ भगवान् महावीर ने समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा-इस विराट् विश्व में चार प्रकार के पुरुष हैं
१. जो शीलसम्पन्न हैं पर श्रुतसम्पन्न नहीं, वे पुरुष धर्म के मर्म को नहीं जानते, अतः अंश से आराधक हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org