Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay
View full book text
________________
३८ भगवती सूत्र : एक परिशीलन मूर्छा का अभाव हो, अनासक्त हो और अप्रतिबद्धविहारी हो। श्रमण को क्रोधादि कषायों से भी मुक्त रहना चाहिये। जो श्रमण राग-द्वेष से मुक्त होता है, वही श्रमण परिनिर्वाण को प्राप्त कर सकता है। ___भगवतीसूत्र शतक १, उद्देशक १ में संवृत और असंवृत अनगार के चर्चा के प्रसंग में यह बताया है कि असंवृत अनगार जो राग-द्वेष से ग्रसित है, वह तीव्र कर्म का बन्धन करता है और संसार में परिभ्रमण करता है और संवृत अनगार जो राग-द्वेष से मुक्त है, वही सम्पूर्ण दुःखों का अन्त करता है। इससे स्पष्ट है कि श्रमण जीवन का लक्ष्य कषाय से मुक्त होना है। इस प्रकार विविध प्रसंग श्रमण-जीवन की महत्ता को उजागर करते हैं।
श्रमण अनगार होता है। वह अपना जीवन निर्दोष भिक्षा ग्रहण कर यापन करता है। उसकी भिक्षा एक विशुद्ध भिक्षा है। भगवतीसूत्र में भिक्षा के सम्बन्ध में यंत्र-तत्र चर्चा है। उस युग में जनमानस में यह प्रश्न उबुद्ध हो रहा था कि श्रमणों या ब्राह्मणों को भिक्षा देने से पाप होता है या पुण्य होता है या निर्जरा होती है ? गणधर गौतम ने जनमानस में पनपती हुई यह शंका भगवान् महावीर के सामने प्रस्तुत की कि उत्तम श्रमण या ब्राह्मण का निर्जीव और दोषरहित अन्न-पानी आदि के द्वारा एक श्रमणोपासक सत्कार करता है तो उसे क्या प्राप्त होता है ?
भगवान महावीर ने कहा-श्रमणोपासक अन्न-पानी आदि से श्रमण और ब्राह्मण को समाधि उत्पन्न करता है, इसलिये वह समाधि प्राप्त करता है। वह जीवननिर्वाह योग्य वस्तु प्रदान कर दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न की विशुद्धि को प्राप्त करता है। वह निर्जरा करता है, पर पापकर्म नहीं करता।
श्रमण बहुत ही जागरूक होता है। भिक्षा ग्रहण करते समय और भिक्षा का उपयोग करते समय उसकी जागरूकता सतत बनी रहती है। आगम साहित्य में यत्र-तत्र भिक्षा सम्बन्धी दोष बताये गये हैं और आहार ग्रहण करने के दोष भी प्रतिपादित हैं। भगवतीसूत्र शतक ७ के प्रथम उद्देशक में प्रस्तुत प्रसंग इस प्रकार आया है-गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष, संयोजनदोष प्रभृति से आहार किस प्रकार दूषित होता है ?
समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-कोई श्रमण निर्ग्रन्थ निर्दोष, प्रासुक आहार को बहुत ही मूछित, लुब्ध और आसक्त बन कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org