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पत्र संख्या ५
बम्बई
२०११ माघ सुदी १५
दोहा
भव्य ! मातृदेवो भव, आप्त वाक्य अनुसार । मात-चरण 'चम्पक' करै, वन्दन सौ-सौ-बार ॥१॥
स्वस्ती श्री गुरुदेव के, पग-पग जय-जयकार । जन-मनहारी स्वाम के, जग-जस अपरम्पार ॥२॥
बड़भागी गुरुदेव के, चिंहु दिशि रेलम्पेल । दिन दूणी निशि चौगुणी, बधै संघ री बेल ॥३॥
मन प्रसन्न गुरुदेव को, सुन्दर स्वास्थ्य विशेष । चित चिन्ता करज्यो मती, यद्यपि बास विदेश ।।४।।
सोरठा
सब शहरां शिरमोड़, मुम्बई सागी मोहमयी। सुन्दरता बे-जोड़, निवसै लोग सुसभ्य-सा ॥५॥
प्रकृति देही धार, मानो भू-पर ऊतरी। इत जल जलाकार, इत पहाड़ ऊंचा हा ॥६॥ दरियो करै किलोल, चढे उछाला खावतो।
करतो घोल-मथोल, टोलां स्यूं टकरावतो॥७॥ १७० आसीस
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