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रुपये तो तकादे के थे, पूरे आना-पाई सहित गिने-गिनाये । दूं तो कहां से? न दूं तो खतरा था । बिना कुछ बोले मैंने रुपया निकालकर दे दिया ।
सवाल तो अब था एक रुपये का हिसाब क्या दूंगा ? उन्होंने रास्ते भर मुझे तरकीबें समझायीं । मैं गद्दी (दुकान) आया । चेहरा उड़ा हुआ था । मन में रुपये घटने की चिन्ता थी । उसे तो घटना ही था । इतनी हथफेरी जानता नहीं था । नया नया शिकारी जो था । तकादे की थैली रोकड़िये को पकड़ा दी। रुपया घटा । मैंने उसकी कमी को पूरा बताने दुबारा गिने । थैली को उलटाकर झटकाया । इधर-उधर देखने का नाटक रचा। पर रुपया थैली में तो था नहीं जो झटकाने से निकल आये । अपनी अनभिज्ञता बतायी। झूठ का आश्रय लिया, गिनती में फर्क रह गया होगा ? पर भीतर से आत्मा रह-रहकर बोल रही थी - चम्पा ! अब ? मैं उदास - हताश, खोया-खोया-सा, मामाजी के पास आया ।
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मामाजी हमीरमलजी कोठारी देखते ही समझ गए, मेरी परेशानी । उन्होंने अपने पास बिठाया और पूछा। मैंने सच - सच सब कुछ बता दिया । वे बड़े विज्ञ थे । उन्होंने मुझे आश्वासन दिया, 'घबराओ मत, यह कलकत्ता है, यहां जाने ऐस कितने ही लोग मिलेंगे । बच-बचकर चलना सीखो। सावधान रहो। कुछ भी नहीं बिगड़ा, एक रुपये में ही निपट गया। यहां तो तकादे की थैली भी छीनी जाती है और जान भी खतरे में होती है । जो हुआ, भूल जाओ । पर आगे सचेत रहना । किसी की बातों में मत आना ।
मेरा मन भीतर ही भीतर कसमसा रहा था। रात को नींद नहीं आई । मैंने दृढ़ निश्चय किया, एक निर्णय लिया । फिर जब कभी भाई साहब सामने आते दिख जाते, तो मैं अपना रास्ता ही बदल लेता । मैंने एक रुपये में अक्ल यों सीखी
कहो ! करणियो के करै, जद बाड खेत नैं खाय । एक रुपैये में टली, 'चम्पक' कुसंग बलाय ॥
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संस्मरण २१६
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