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इच्छा तो हमारी भी होती है
नौहर संतोष-निवास में पिछली रात्रि को विहार की मंजिलों पर चिन्तन चल रहा
था ।
आचार्यप्रवर ने बीच में ही फरमायाभेजें तो कितनी मंजिलों में पहुंच सकते हैं ?
भाजी महाराज ने अर्ज की - संत तो आपकी कृपा से पांच ही मंजिल में पहुंच जायेंगे ।
- अगर सरदारशहर संतों को पहले
आचार्यप्रवर ने फरमाया- तो आप ही चले जाओ न, मंत्रि मुनि आपको बुला रहे हैं ।
भाजी महाराज ने कहा - तहत ! यह तो मंत्री मुनि की कृपा है । जैसी आपकी मरजी हो मैं हाजिर हूं ।
आचार्यश्री ने निर्णय की भाषा में फरमाया - हीरालाल को छोड़कर आप सभी संत तैयार हो जाओ, आज ही विहार करना है । वयोवृद्ध मुनि चौथमलजी स्वामी खड़े होकर निवेदन करने लगे - हुजूर ! एक अर्ज है। भाईजी महाराज के साथ मुझे भी कृपा करायें, आज तक कभी मोटे पुरुषों के साथ जाने का काम ही नहीं पड़ा, बड़ी इच्छा होती है, कभी साथ रहने का अवसर आये, आप मेहरबानी फरमायें ।
आचार्यवर ने विनोद में मुस्कान बिखेरते हुए फरमाया - अजी ! आपकी ही क्या इच्छा होती है । इच्छा तो कभी-कभी हमारी भी होती है चम्पालालजी स्वामी के मधुर सहवास का आनन्द लेने को । पर क्या करें।
पिघलते - पिघलते से श्री भाईजी महाराज ने निवेदन किया - महाराज ! 'कृपा गुरांरी है जठै, वठै मधुर मधुमास । संघ गुणी, 'चम्पक' रिणी, कृपा-कृपा सहवास ॥
२६४ आसीस
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