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सबका ध्यान टूटा। आचार्यप्रवर ने जरा मुस्कराकर फरमाया-'आवो ! आवो ! सब रास्ते खुले हैं। भला ! आपके रास्ते कौन बन्द कर सकता है ?' भाईजी महाराज से नहीं रहा गया। वे बोले-'आपके सिवा और कौन बन्द कर सकता है ?' आचार्यप्रवर के इशारे की देर थी। साध्वियों ने इधर-उधर खिसककर रास्ता बना दिया। मुनिश्री आचार्यप्रवर तक पहुंचे। पहुंचते-पहुंचते आपने एक पद्य बनाया और तत्काल सभा के समक्ष सुनाते हुए कहा-खमाघणी !
सिवा आपरे कुण सके, रस्ता म्हारा रोक,
आज्ञा लिछमण-रेख आ, 'चंपक' चौड़े चोक।' आचार्य सहित पूरा साध्वी समाज हंस पड़ा। अवसर की वह सचोट बात और साथ-साथ शास्ता की आज्ञा का महत्त्व, समय की एक सूझ थी। __भाईजी महाराज ने अनायोजित ही एक लघु वक्तव्य देते हुए फरमाया-'मैं तो कुछ पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर इतना अवश्य जानता हूं कि आज्ञा हमारा परमधर्म है। 'जिन मारग में आज्ञा बड़ी' स्वामीजी का अमोघ वाक्य है। आज्ञा ही साधक का जीवन है। आज्ञा प्राण है। आज्ञा रक्षा है। आज्ञा त्राण है। आज्ञा ही हमारे लिए लक्ष्मण-रेखा है। जब तक सीता ने लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन नहीं किया, उसे कोई खतरा नहीं था। वह दुष्ट रावण की बातों में आ गयी। संन्यासी के धोखे में ज्योंही उसने रेखा को लांघा कि रावण का दांव लग गया। सीता को कितने कष्ट झेलने पड़े ? हमारे लिए यह आज्ञा ढाल है। सुरक्षा की इस सीमा-रेखा में रहकर हम परम-आनन्द का अनुभव करते हैं। सात हाथ की सोड़ में सोते हैं। कोई हड़का है न धड़का। खुल्लम-खुल्ला बात है-हम तो आज्ञा के पुजारी हैं । आचार्य की आज्ञा ही हमारे लिए लक्ष्मण-रेखा है। आपके द्वारा निकाली गयी निषेध-लकीर हमारे लिए दीवार है, समुद्र की-सी खाई है । हम उस निषेध,रेखा का लंघन नहीं कर सकते। अतः गुरुदेव ! मैंने कहने का साहस किया है।
सिवा आपरे कुण सके, रस्ता म्हारा रोक। आज्ञा लिछमण-रेख आ 'चम्पक' चौड़े चोक'
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