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जानवर का क्या ?
१० अप्रैल, १९६३ को वैसाख कृष्णा दूसरी प्रतिपदा थी। हम जोजावर के गढ़ में ठहरे थे । जोजावर ठाकुर साहब बड़े साहसी और सेवा-परायण हैं। उन्होंने भाईजी महाराज से निवेदन किया--जरा आप पिछबाड़े पधारो तो आपको एक शेर का बच्चा दिखाऊं। भाईजी महाराज ने श्लेषालंकार में फरमाया-ठाकरां ! शेर का बच्चा क्या, हम तो शेर को ही देख रहे हैं।
सेवाभावी मुनिश्री जी के साथ जोजावर ठिकाने का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ठाकरों का भक्ति-भाव और मुनिश्री का वात्सल्य दोनो ही बेजोड़ हैं। भाईजी महाराज ने हंसकर कहा-ठाकरां! खुल्ला शेर देखने की तो मनसा रहती है, पर आपके शेर का बच्चा तो पिंजड़े में होगा? बन्द शेर को क्या देखें ? ठाकुर बोले, हक्म ! वही दिखाऊंगा जो आपकी मनसा है, जरा पधारो तो सही। मुनिश्री बाड़े में पधारे । ठाकुर-सा दौड़कर आगे चले गए।
हमने देखा ठाकरों के साथ कुत्ते की तरह जंजीर से बंधा एक शेर का बच्चा आ रहा है । उन्होंने उसे संकेतों के आधार पर लिटाया, उठाया और मुंह में अंगुली दी। वह शेर होकर भी पालतू जानवर बन गया था। भाईजी महाराज बड़े निर्भीक और साहसी थे। उनका राजपूती मानस अनोखा था। मुनिश्री जरा आगे बढ़े और शेर को ज्यों ही हाथ से छुआ कि वह गुर्राया। ठाकर ने बताया-भाईजी महाराज! अभी तक इसके मुंह पर खून नहीं लगा है। यह नहीं जानता खून का स्वाद कैसा होता है ? मैं इसे पास में बिठाकर सोता हूं। यह पल्यंक के चारों ओर चक्कर लगाता घूमता रहता है।
भाईजी महाराज जरा गम्भीर हो गए–ठाकरां ! ओ आसंगो आछो कोनी?
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आसीस
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