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अर्थं अपने-अपने
जयपुर का चातुर्मास सम्पन्न कर पूज्य गुरुदेव फतहपुर पधारे । भाईजी महाराज के जन्मदिन पर आचार्यप्रवर ने सबसे पहली बार बधाई दी । कौन जानता था कि यह भाईजी से मिलने वाली अंतिम बधाई होगी । न जाने क्यों आचार्यवर ने फरमा दिया 'यशोविलाश का पुनरावलोकन पूरा हो गया है, अब 'लाडांजी' का जीवन चरित्र लिखकर 'माजी' का व्याख्यान बनाना है । फिर आपकी भी तो तैयारी करनी हो होगी ।' यह कौन जानता था, सहज निकला शब्द यों चरितार्थ हो जाएगा ।
श्री भाईजी महाराज ने कृतज्ञता ज्ञापन के बाद कहा—आज विहार तो करना है पर शनिवार है, करूं कि न करूं ? दुविधा है ।
आचार्यप्रवर ने फरमाया- - आप भी बहमी हो गये । सुखे सुखे विहार करो, हम भी आ रहे हैं पीछे के पीछे !
ज्योंही हमने विहार किया, शकुन ठीक नहीं हुए । भाईजी महाराज पुनः आजाद भवन में पधार गये । दुबारा प्रस्थान किया पर शकुन इनकार कर रहे थे । इतने में गुरुदेव पधारे । चलो, हम भी आपको पहुंचाने चल रहे हैं । हम रवाना हुए। बहुत सारे संत और संस्था की बहनें तो कोई दो किलोमीटर तक साथ आईं । रामपुरा के पास संतों को सीख दी । उस दिन वीरमपुर रुककर हम दूसरे दिन सायंकल धानणी पहुंचे । रात को लाडनूं के कार्यकर्ता आए । व्यवस्था सम्बन्धी चर्चा भाईजी महाराज ने बाहर बरामदे में बैठकर की । शयन से पहले मुनि मोहन लालजी (आमेट) ने टिप्पणी की। भाईजी महाराज को वह असुहावनी लगी । सुबह प्रतिलेखन के समय मोहन मुनि आये और खमत - खामणा करते हुए माफी मांगी ।
लाडनूं - व्यवस्था पर तीखी
अनायास ही भाईजी महाराज ने फरमाया - सागर ! आज का मेरा सपना
संस्मरण ३३७
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