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मजदूर पेट भर सकता है, धन नहीं जोड़ सकता
१० अप्रैल, १९६३ जोजावर (मारवाड़) के बाहर एक नयी बस्ती बसी है। उसमें सांसी लोग रहते हैं । वहां उन्हें कंजर कहते हैं । पक्के मकान । अच्छे कपड़े, थोड़ासा ठाठिया। भाईजी महाराझ ने पैर थामकर देखा और पूछा यह बस्ती किसकी है? इतने में एक लड़की आती दिखाई दी। हम दो मिनट रुके । मुनिश्रीने उससे पूछा--- बाई ! तुम कौन लोग हो? वह हिन्दी बोल सकती थी। उसने हाथ जोड़कर उत्तर दिया-महाराज ! हम तो कंजर लोग हैं।
उसकी सभ्यता, पहनाव, बोली-चाली और नम्रता कंजरों जैसी नहीं थी। उसने बताया-हम लोग भी अब शहरी सभ्यता सीख रहे हैं। जैसा देश वैसा वेश। हमारी जाति के कुछ नयी पीढ़ी के बच्चे पढ़ने भी लगे हैं। जब उससे कामकाज के विषय में पूछा तो वह जरा ठिठक गयी। उसने ससंकोच सीधा-सादा उत्तर दिया---गांव में इधर-उधर का काम ही करते हैं, महाराज!
हम आगे बढ़े। हमारे साथ कुछ ग्वालों के बच्चे हो गए थे । वे भेड़-बकरी चराने जा रहे थे। उन्होंने हमारी बातें सुनी थीं। वह लड़की काफी दूर निकल गयी। हम भी कंजर बस्ती पार कर गये । गड़रिये भी हमारे साथ-साथ थे। वे फूल-फूलकर गुब्बारा हुए जा रहे थे । कुछ कहना चाहते थे। पर कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। एक कहता था-'तू कह' और दूसरा कहता था 'इतनी बलत है तो कह दे तू ही।' भाईजी महाराज ने फरमाया- क्यों भाई ! क्या कहना चाहते हो ? लो मैं पूछता हूं, तुम दोनों ही बता दो। __उनमें से एक ने कहा-सन्तो! आप जिससे बात कर रहे थे—वह कंजरों की छोरी थी। ये कंजर बड़े छाकटे होते हैं। आपने जब उससे पूछा-तुम क्या काम करते हो, तो वह बोली क्यों नहीं ? बोलती कैसे महाराज ! पानी मरता है, पानी। ये लोग चोर हैं, चोरी करते हैं। बिना चोरी के कभी पैसे इकट्ठे होते हैं ? ये
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