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मन का कांटा
वि० सं० २०१६ वैशाख कृष्णा ४, १३ अप्रैल, १६६३, की बात है । रामसिंहजी के गुड़े से विहार कर हम राणावास जा रहे थे । मार्ग में एक बबूल का कांटा भाईजी महाराज के पैर के तलवे में चुभ गया। कांटा उसी स्थान पर चुभा जहां पहले से आइठाण (ऐठण) था । एक पांव भी आगे चलना कठिन हो गया। कांटा निकालने के लिए भरसक प्रयत्न किए पर वह नहीं निकला सो नहीं ही निकला ।
यह प्रदेश कांठा है । यहां के कांटे भी नामी हैं । परसों ही एक कांटा लगा था । - पूरी शूल पगथली में घुस गयी थी। बड़ी कठिनता से उसे पूरी ताकत के साथ खींचकर निकाला था । एक झटके में शूल तो निकल गयी पर साथ ही खून की धार भी बह निकाली। पैर में अच्छा-खासा दर्द हो गया । सेक आदि करने पर वह कुछ हलका पड़ ही रहा था कि आज उसी के पास दूसरा कांटा और लग गया । लंगड़ाते नीठ-नीठ राणावास लिया । कई सन्तों ने जो कांटा मास्टर थे. कोशिशें कीं पर वह भी तो पूरा जिद्दी ठहरा, निकालने वाले सारे हार गए । अन्त में झुंझलाकर भाईजी महाराज ने फरमाया-' छोड़ो अब मुझे दो' और देखतेही देखते शूल का एक गहरा सान्ता दिया और कांटे को ऊपर उठा लिया । अब क्या था कोई एक इंच लम्बा कांटा सपाक बाहर निकल आया । कांटे को देखकर मुनिश्री बोले
'कांटो पग से काढ़ दें, 'चम्पक' चतुर चकोर । (पर) मन रो कांटो मायलो, कहो कुण काढै कोर ? || '
सभी ने सन्तों को — जो वहां उपस्थित थे - भाईजी महाराज की इस मार्मिक पंक्ति ने गंभीर बना दिया। हम सभी बाह्य परिवेश को छोड़ भीतर को झांकने
लगे ।
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संस्मरण ३०५
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