Book Title: Aasis
Author(s): Champalalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 333
________________ ५८. ईमानदारी की बात कोई मानेगा? २६ मार्च १९६३, चैत्र शुक्ला ४-५, वि० सं० २०१६ का दिन था। मध्याह्नोत्तर ३-३० सरदारगढ़लावा से विहार कर हम आगरिया पहुंचे। सायंकालीन गुरुवन्दना के बाद भाईजी महाराज प्रतिक्रमण कर रहे थे । एक भाई आया और कान में कुछ कह गया। कोई खास बात है । चेहरे की खिन्न रेखाएं बता रही थीं। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा यों प्रतिक्रमण के बीच कुछ लोगों का आना-जाना, घुस-पुस करना, स्पष्ट किसी स्हस्य का संकेत था। सभी लोग मनोमन अटकलें लगा रहे थे । कोई अपना अनुमान बता रहा था तो कोई किसी को पूछने के प्रयत्न में था। प्रतिक्रमण पूरा होते ही भाईजी महाराज ने दो क्षण आचार्यश्री के कान में कुछ कहा और बिना किसी विचार-विमर्श के पुनः अपने आसन पर विराज गये। इधर-उधर देखकर मुझे नजदीक आने का संकेत किया । मैं ज्यों ही मुनिश्री के निकट पहुंचा कि बिना कोई भूमिका बांधे, कड़े रुख से आपने पूछा-साफ-साफ बताओ। वह कहां है ? घस-पस की जरूरत नहीं है। ___मैं भौंचक्का रह गया। धक्-धक कलेजा धड़कने लगा। हाथों-पांवों में कम्पन शुरू हो गया। चेहरे की हवा उड़ गयी। मैं दिग्-मूढ़ था । यह कैसा प्रश्न ? यह कैसी कड़ाई ? भाईजी महाराज ने आगे फरमाया-घबराओ मत ? डरने की आवश्यकता नहीं है, जो होना था हो गया । यथार्थ को बिना छुपाए यह बताओ वह है कहां? जहां सन्तों ने सोने का स्थान निर्णय किया था, वह वहां नहीं है। यहां भी नहीं है ? वहां भी नहीं है । केवल उसकी नेत्राय का ओघा उस ठिकाने के दरवाजेपोली में पड़ा है। तुम दोनों घनिष्ठ साथी हो । तुम्हारे बीच आंतरिक सलाह-सूत भी होती है। जो कुछ भी है। साफ-साफ बता दो, ताकि ढूंढ़ने वालों को नाहक संस्मरण ३०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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