________________
५४
भगत जीत गया
मेवाड़ में पहुंना के नजदीक ही ऊंचा एक छोटा-सा गांव है। वे लोग प्रार्थना कर रहे हैं पधारने की । पर श्री का मन कम-कम है । प्रातः पंचमी -समिति ( शौच - निवृत्ति) पधारते समय रास्ते में श्री भाईजी महाराज ने निवेदन किया - महामहिम ! जरा गौर फरमाओ न, बेचारे ऊंचा वालों का इतना मन है, फिर कब-कब पधारना होगा, करवा दो न कृपा, आप तो तरन तारन हैं ।
आचार्यश्री ने मुस्कराकर फरमाया- उनका मन क्या देखें, मन तो देखना पड़ता है आपका |
इतने में ऊंचा कुंवर साहब पहुंच गए। श्री भाईजी महाराज ने कहा, कुंवर - सा ! खूब मौके पर आए। उन्होंने पैर पकड़ लिये । भाईजी महाराज ने सहारा दिया । गुरुदेव ऊंचा पधारे ।
ऊंचा से पहुंना, मरोली, जाड़ाणा होकर भीमगढ़ प्रवेश हुआ । यहीं से लांगच गांव का रास्ता है। भाई मांगीलाल बहुत दिनों से प्रयत्न में हैं - आचार्यश्री का लांगच पदार्पण हो, पर गुरुदेव अभी टालने में हैं । आज मांगीलाल रास्ता रोक, पैर पकड़कर बैठ गया । लगभग सभी संतजन भी ना में हैं । शास्ता के नाते खीजबीज - भीज सब कुछ किया, पर वह बंदा टस से मस नहीं हुआ । अंत पसीजकर आचार्यवर रीझे और फरमाया - चम्पालालजी स्वामी ! बोलो, अब क्या करें ?
श्री भाईजी महाराज ने चुटकी लेते हुए कहा - महाराज ! यह भगत और भगवान का झगड़ा है, हम कौन होते हैं बीच में बोलने वाले, हम तो खड़े-खड़े देख रहे हैं, देखें ! आज कौन जीतता है-भगत या भगवान् ?
आचार्यश्री ने लांगच पधारने की घोषणा की और भाईजी महाराज ने कहा -- वाह ! वाह ! वाह ! आज तो भगत जीत गया, भगत जीत गया । वि० सं०
संस्मरण २६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org