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यहां से (समुच्चय की गोचरी में से) भोजन लाया करता था। गुरुदेव को आहार करवा कर फिर भाईजी महाराज आहार लेते । मुनिश्री के शब्दों में-'ठाकुरजी के भोग लाग्यां पछै ही पुजारां ने मिले।' मैं ज्यों ही आया भाईजी महाराज ने पूछा-दूध ल्यायो है ?
मैंने कहा-हां। 'तो चोथू ने दूध घाल दे' मुनिश्री ने आदेश दिया। मैंने ज्यों ही दूध की पात्री खोली मुनिश्री बोले, 'इत्तोई ल्यायो के ?' मैं बोला-समुच्चय में इतना ही था।
मैं चौथ मुनि के पात्र में दूध डाल रहा था। मेरे सामने समस्या थी। दूध थोड़ा था और अब लेने वाले मुनि तीन थे। मैं अनुपात से तीसरा हिस्सा रुक-रुक कर उनके पात्र में डाल रहा था। मेरे देने की प्रक्रिया देख, भाईजी महाराज ने तत्काल एक दोहा कहा
सागर ! मत कर सूमड़ा, कर काठो कंजूस।
दियां नहीं खूटे दरब, मत बण मक्खीचूस ॥ मैं धीमे से बोला-कंजूस नहीं। मैं सोचता हूं थोड़ा आपके उपयोग में आ जाये, थोड़ासन्त बसन्त के बुखार है, उन्हें दे दू और थोड़े से अगरचंदजी स्वामी का काम भी चल जाये। ____ भाईजी महाराज ने मेरे हाथ से पात्री ली और सारा दूध उनकी पात्री में उड़ेलते हुए कहा--'लेजा चोथू। मेरा क्या है मैं तो रोटी खाकर भी पेट भर लूंगा। वे बीमार हैं उन्हें तो और कुछ खाना ही नहीं है । जा-जा, ले जा, भाई ! बीमार को पहले।'
पास बैठे एक सन्त ने कहा-और बसन्तीलालजी को?
मुनिश्री ने हंसकर कहा- वाह ! वह तो जवान है और उसे बुखार भी है। बुखार को तो भूखा ही रखना चाहिए । अच्छा सागर ! एक काम करना, बन्सतीलाल को दुपहरे चाय मंगाकर पिला देना।
यह थी भाईजी महाराज की सेवा-भावना, आत्मीयता, अपना बनाने की कला और संघीय आर्तगवेषिणा।
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