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मुझसे नहीं, परिषद् से पूछो
२००८ पौष शुक्ला नवमी सरसा, पंजाब की बात है। संत-साहित्य परिषद की सांयकालीन गोष्ठी में श्री भाईजी महाराज को वक्तव्य देने के लिए कुछ संतों ने मिलकर निवेदन किया। मुनिश्री ने यह कहते हुए टाल दिया-भाई ! मैं क्या बोलूंगा। सुनो किसी साहित्यकार को। सन्तों ने आचार्य प्रवर से स्वीकृति ली और विज्ञप्ति प्रकाशित कर दी-'आज सांयकाल साढ़े सात बजे विचार गोष्ठी में श्रद्धेय भाईजी महाराज का शिक्षा और विनय पर विशेष उल्लेखनीय वक्तव्य होगा।' ___ साहित्य परिषद् के संयोजक मुनि सुखलालजी ने विचार गोष्ठी के विषय को छूते हुए भाईजी महाराज का परिचय देकर भाषण प्रारंभ करने की प्रार्थना की। ___ भाईजी महाराज ने मातृ-भाषा राजस्थानी में अपने पैंतालीस मिनट के भाषण में शिक्षा और विनय का बेजोड़ संबंध बताते हुए कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों से विनय-अविनय की लाभ-हानि बताकर आज की शिक्षा में अविनय के प्रवेश की ओर संकेत किया तथा समय पर आचार्य के नाराज होने पर उन्हें रिझाने की कला, बड़ों के प्रति आदर और छोटों के प्रति वात्सल्य पर जोर दिया।
प्रश्नोत्तर काल में अनेकों प्रश्न आये-क्या विनय चापलूसी नहीं है ? स्वार्थयुक्त विनय से क्या अविनय अच्छा नहीं? एक मुंह पर कह देता है और एक जीहजरी करता है, दोनों में कौन-सा ठीक है ? आज अविनीत कहे जाने वाले विद्यार्थी भी उत्तीर्ण हो जाते हैं, तो फिर विनय से लाभ ? ऐसा विनय क्या काम का जहां पात्री ही फूट जाए ? एक बचपन में कसूर कर लेता है तो क्या बड़े को भी आंखें गरम करके बात करनी चाहिए ? विनय आखिर कहते किसे हैं ? क्या प्रतिदान में विनय मांगने वाला विद्या गुरु, अपने आपमें विनीत है ? यह विनय-संहिता छोटों के लिए ही है या बड़ों के लिए भी ? शिक्षा शिक्षा है, उसे विनय-अविनय के साथ क्यों जोड़ा जाता है ? क्रमश: भाईजी महाराज सबका उत्तर संक्षिप्त किन्तु गाम्भीर्ययुक्त २६२ आसीस
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