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पहला-पहला कविसम्मेलन
२००८ कार्तिक शुक्ला छठ को दिल्ली सब्जीमंडी घंटा-घर, चंद्रावल रोड में कठोतिया मोहनलालजी की कोठी पर एक कवि-सम्मेलन रखा गया। आचार्यप्रवर परिषद में विराजे थे। राजधानी के आमंत्रित कविजन कठोतियाजी के कमरे में आ-आकर बैठते गये । वे झिझक रहे थे, कहां आ गये । समय हो गया पर कोई भी कवि बाहर मंच पर नहीं आया। कहने पर भी कवि लोग बाहर आते टाल-मटोल कर रहे थे। भाईजी महाराज के निवेदन पर आचार्यप्रवर ने प्राग् वक्तव्य फरमाया। संतों की कविताएं प्रारम्भ हुई। जनकवि फिर भी बाहर नहीं पहुंचे। संयोजक देवेन्द्रजी करणावट भी हैरान थे। भाईजी महाराज से नहीं रहा गया। वे भीतर पधारे और कवियों से बोले
'बुरा न मानें, पूछ रहा हूं, झिझक है कि, कुछ उलझन ?
कवि बैठे कमरे के भीतर, (और) बाहर कवि-सम्मेलन ?' क्या यह भी कोई तरीका है ? कवि भी डरता है, वेश-भूषा देखकर ? ये संत साहित्यकार हैं, कवि हैं। सुना है कवि-बिरादरी अभेद होती है, फिर यह भेद कैसा? एक फक्कड़ संत की ललकार पर कवियों की हिचक टूटी। शरमाते-सकुचाते कुछेक कवि उठे, बाहर आये। संत-काव्य का रस भी कुछ भिन्न था। धीरे-धीरे एक-एक कर कवि परिषद् में आते गये। उस दिन लगभग बीस दिल्ली के मंजे हुए कवियों ने तेरापंथ साहित्य सृजन को परखा। कुछ कवि बोले, कुछ न बोले । अब जमा कविसम्मेलन । मन का संशय हटा। कवि लोग खुले । वाह ! वाह ! की कवि-दाद में तेरापंथ संत कवियों की कविताओं ने एक छाप जमायी। तेरापंथ संघ का यह शायद सबसे पहला कविसम्मेलन था। भाई देवेन्द्रजी ने भाईजी महाराज की युक्ति का लोहा माना।
संस्मरण २६१
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