Book Title: Aasis
Author(s): Champalalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 295
________________ मेरे पास कोई उत्तर नहीं था नोहर २००८ माघ कृष्णा ४ । भाईजी महाराज आहार-मंडल में विराजे ही थे। आहार प्रारम्भ किया कि एक सन्त ने आकर कहा-आचार्य प्रवर याद फरमा रहे हैं । मुनिश्री ने भोजन के बीच हाथ धोये और आचार्यश्री की सेवा में पधार गये । कुछ आवश्यक परामर्श के बाद ज्यों ही वापस पधार रहे थे, मार्ग में एक सन्त ने निवेदन किया-भाईजी महाराज ! औजार तैयार हैं, मेरा दांत...। भाईजी महाराज ने 'हां भाई !' कहा और दांत निकालने पधार गये। पांच सात दिनों से उन्हें दांत की बड़ी तकलीफ थी। भाईजी महाराज का हाथ बहुत साफ और अनुभव डॉक्टरों जमे थे। सेवा के ऐसे अवसरों पर उनकी आत्मा बहुत प्रसन्न होती । मुझे तो वहां पहुंचना ही था। दांत निकाल, हाथ धो, अब पधारे भोजन मंडल पर । मैंने कहा-परोसा भोजन सब ठंडा हो गया। भाईजी महाराज ने जरा आंखें गर्म की और फरमाया-क्या कहा ? है तुम्हारे में अकल ? पहले गुरुदेव की आज्ञा है कि भोजन ? पगले ! आराम बीमार की सेवा में जो रस है वह खाने में नहीं है। खाना तो खाना है शरीर को निभाने। ठंडा गरम कुछ नहीं'उतरा घाटी हुवा माटी' । भीतर की जठराग्नि गरम चाहिए । बता । 'अकलदार ! पहली बता, आज्ञा है कि आहार? खाना प्रथम कि सेवा प्रथम, सागर! जरा विचार ।। अब मेरे पास तहत के सिवाय कोई उत्तर नहीं था। संस्मरण २६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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