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मुद्रा में जचाया। सांप का फण जरा उठा-उठा-सा रखा और ऊपर एक पात्र उलटों ढंका।
आचार्यप्रवर भोजन-निवृत्त हो टहल रहे थे। दसों संत इर्द-गिर्द पर्युपासना में खड़े थे । मैं वह ढंका पात्र हाथ में लिये पहुंचा। नजदीक गया। श्री ने योंही सोचा होगा, गोचरी में आया हुआ द्रव्य दिखाने आया है । गुरुदेव ने पैर रोके । मैंने एक्टिग करते हुए पात्र का ढकन हटाया और थोड़ा-सा हाथ हिलाया। हाथ के कंपन से सांप हिलता-सा प्रतीत हुआ, सचमुच जैसे असली सांप हो । श्री समेत सभी दर्शक सहम गये । मैंने अपनी कला को मन ही मन दाद दी। गुरुदेव से कला-दर्शन पर शाबासी ले, मैं भाईजी महाराज के पास पहुंचा।
उस समय छग्गू-बा भाईजी महाराज के पास बैठे आहार कर रहे थे। उनकी पीठ मेरी ओर थी । मैं गया और पीछे से वह असली जैसा सांप छग्गू-बा के गले में डाल दिया। सुना तो यों था छग्गू-बा मजबूत छाती के हैं पर मेरी इस हरकत ने उन्हें दहला दिया। वे धुंघाए । थर-थर कांपने लगे। मैंने अपनी गलती को ढांकने में खूब फुरती की। सांप गले से निकाल लिया । छग्गू-बा, सांप नहीं है, यह उसकी उतरी हुई निर्जीव कांचली है। उन्हें थामा, पर उनका कलेजा हिल गया था। छाती धग्-धग् कर रही थी। उसके होश-हवाश उड़ गये। वे पसीना-पसीना हो गए। मुझे अपनी जादूगिरी पर मलाल था। श्री भाईजी महाराज ने स्थिति संभाली, अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया। छाती मसली, बातों में लगाया। भय भुलाने का प्रयत्न किया। ___ छग्गू-बा का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन मेरा बिगड़ना सामने था । मैं सोच रहा था आज खैरियत नहीं है । मुंह सफेद पड़ गया। आंखें रुंआई-सी हो गयीं। वे भाईजी महाराज थे। मुनिश्री ने फरमाया-पगले ! तूं क्यों डरता है ? हो गया सो हो गया। मैं तुझे डालूंगा थोड़ा ही, पर देख !
'आगेसर करणी नहीं, सागर ! इसी मजाक। धसके स्यूं फाटै हियो, हुवै अनर्थ हकनाक ।।
२६० आसीस
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