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मटकी पटकी
वि० सं० २०१० भाद्रव कृष्णा अमावस्या, जोधपुर का बात है। मुनि हीरालालजी (बीदासर) आचार्यश्री और नवदीक्षित बाल मुनियों के लिए पानी की व्यवस्था करते थे। उन्होंने सायंकाल पानी छानकर, खाली मटकी ऊपर रखने के लिए बाल मुनि मणिलालजी को दी। वे सिंधी भवन की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। न जाने क्यों अचानक एक धमाका हुआ। हमने देखा मणिलाल जी जीने में बेहोश पड़े हैं। मटकी की ठीकरियां बिखर गयीं। हम दो-तीन संतों ने मिलकर उन्हें ऊपर पहुंचाया।
दिन थोड़ा रह गया था। बाल मुनि बेहोश थे। श्री भाईजी महाराज उन्हें सचेत करने में व्यस्त थे। अनेक उपाय किए । आवाजें दी । नांक बंद किया । पानी छिड़का । पर सब कुछ नाकाम । बिराजे-बिराजे भाईजी महाराज को न जाने क्या जंची, मणी-मुनि के दोनों कान पकड़कर ऊपर की ओर खींचे कि उन्होंने आंख खोली । चेतना आते ही मुनि मणिलाल जी ने अधहोशी में कहा--मटकी। श्री भाईजी महाराज मन ही मन मुस्कराए और बोले-भोले !
'बा मटकी पटकी बठे, अटकी अठ अजेस।
'चम्पक' चटकी पण दकी! भटकी मती मनेश!' भाईजी महाराज मुनि मणिलाल जी को परोक्ष में मुनेश ही फरमाया करते। यह प्यार का नाम था।
संस्मरण २६७
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