Book Title: Aasis
Author(s): Champalalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 304
________________ महाराज का जी बहुत टूटा । वे नहीं चाहते थे, मुझे अकेले पीछे छोड़ना और न ही चाहते थे आचार्यप्रवर से स्वयं पीछे रहना। मेरे प्रति उनका अगाध वात्सल्य था। विवश सेवाभावी मुनिश्री मेरे पास पधारे, विराजे। मेरी नब्ज देखी और पूछा, 'अब कैसे हो?' ___मैं कुछ बोलता इससे पहले ही मुनिश्री ने भूमिका बांधनी प्रारम्भ कर दी। मैं समझ गया, यह सब मुझे पीछे छोड़ने के उपक्रम हैं। मैं भी स्वयं अपने मन में निर्णय किये बैठा था-अब विहार करने की परिस्थिति नहीं है । मेरा अपना मनोबल टूट चुका था। शरीर का सामर्थ्य जवाब दे रहा था। मैंने भाईजी महाराज से अर्ज की-'आप तो सुखे-सुखे गुरुदेव की सेवा में पधारो। मैं यहां दो-पांच दिन रुककर, ठीक हो जाने पर आ जाऊंगा।' __ भाईजी महाराज ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-'भाई दो-पांच दिन से कुछ नहीं होगा। साफ-साफ बात है। डॉक्टर, वैद्यजी और जतीजी ने आंत्र-ज्वर बताया है। कम-से-कम २१ दिन तो टाइफायड लिया ही करता है । तेरे मोतीझरा उल्टा है। दाने पेट पर नजर आ रहे हैं। उलटा भाव सदा समय लिया करता है। तुम कोई विचार मत करना । तुम्हारे पास रहने के लिए सोहनलालजी (राजगढ़) और राजमलजी (आत्मा) को तो गुरुदेव ने आदेश फरमा दिया है । मेरी इच्छा है वसन्त या मणिलाल में से किसी एक को तुम्हारे पास और रख दूं। वे दोनों ही रहना चाहते हैं। जबसे सुना है दोनों ही आग्रह कर रहे हैं। वह कहता है, मुझे रख दो और वह कहता है नहीं, मैं रहूंगा। तुम्हें असुविधा न हो तो तुम मुनि मणिलाल को यहां रख लो। वह मन छोटा-छोटा करता है । तुम्हारे भी ठीक रहेगा।' अशक्ति अधिक थी । मैं कुछ बोलना चाहता था। इतने में भाईजी महाराज ने मुझे रोकते हुए कहा—'तुम बोलो मत । बोलने से जोर पड़ेगा । मैं जानता हूं तुम्हारी भावना। मेरा काम तो अकेले वसन्त से ही चल जाएगा। तुम मेरी फिकर छोड़ो।' मुझे खूब-खूब आश्वासन दे, जतीजी को दवा-पानी की व्यवस्था सौंप, भाईजी महाराज ने विहार किया। हम चार सन्त जावरा रुके । जावरा जैनों का गढ़ है, पर तेरापंथ का कोई एक बच्चा भी नहीं है । जैनों की बस्ती जो है, लगभग विरोधप्रधान है। उन दिनों मुनि सुशीलकुमारजी भी वहीं थे। वह भी एक युग था। परस्पर में जहां आंख भी नहीं मिलती थी। हमें रहने के लिए जैनों के यहां कोई स्थान उपलब्ध नहीं हुआ। कई स्थान खाली पड़े थे, पर वे तो कबूतरों के लिए थे। भला वहां एक परदेशी बीमार जैन-मुनि के लिए स्थान कहां था? वैष्णव धर्मशाला में जहां हम रुके थे, उन पर भी बहुत दवाब आये। स्थान खाली करा लेने को कहा गया। पर उनसे तो हमारा कलकत्ता से सम्बन्ध था। वह धर्मशाला कलकतिया धर्मशाला कहलाती है । हम वहां रुके । रुके क्या, रुकना पड़ा । बड़ा अटपटा लगा, पर करते भी तो क्या? २७४ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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