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तीर्थभूमि लाडनूं
आचार्यश्री तुलसी ने अपने ज्येष्ठ बन्धु स्वर्गीय भाईजी महाराज को अंतिम श्रद्धांजलि चढ़ाते हुए कहा था
शहर लाडनूं रो तो बो हो सारां सिरे सपूत, जन्म-भूमि रो गौरव गातो दे दे बड़ी सबूत। इणने इण खातर मत छेड़ो, श्री काल फरमायोः आयो, चम्पक मुनिवर चांदज्यूं, हो चांद ज्यूं।'
यदा-कदा सन्त लाडनूं के बहाने चम्पक-मुनि से चुटकी लेते और उन्हें प्रतिवाद में लाडनूं की गौरव-गाथाएं सुनने को मिलतीं।
कभी-कभी विनोद, विवाद का रूप ले लेता तो श्रद्धेय कालगणी जी फरमाते-चम्पा ! तेरा क्या लेता है, कह लेने दे इन संतो को, तू क्यों बोलता है ? और भाईजी महाराज अर्ज करते--गुरुदेव ! आप ही फरमायें, लाडनूं है न विशेष सानी रखने वाला क्षेत्र ? इसकी जोड़ी का है कोई दूसरा गांव ? ___कालूगणी फरमाते-हां, हां, तेरे लाडनूं की होड़ कौन कर सकता है । लाडनूं तो लाडनूं है । सुनते ही चम्पक मुनि का सेर खून बढ़ जाता और वे कहते-देखो, सन्तों! पूजी महाराज ने क्या फरमाया-लाडनूं की बराबरी कोई नहीं कर सकता । यह तीर्थ-भूमि है, तीर्थ-भूमि । पुण्य भूमि, सिद्ध-भूमि । तपोभूमि, साधनाभूमि।
विवाद को विनोद में बदलते हुए श्रीमद् कालूगणी फरमाते--संतों! चम्पालाल को लाडनूं के लिए मत छेड़ा करो। इसके मन में मातृ-भूमि के लिए अगाध स्नेह है।
२३० आसीस
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