________________
एक शब्द में पानी-पानी
गुरु गुरु होते हैं। वे अपनी गरिमा के धनी होते ही हैं, साथ-साथ वत्सलता के सागर भी होते हैं। उनकी उदारता उन्हीं में होती है। शिष्य की छोटी-बड़ी गलती की ओर वे नहीं देखते। वे देखते हैं जीवन-परिष्कार की मौलिकता।
श्री भाईजी महाराज ने अपने अनुभवों के बीच फरमाया
छापर की बात है । नाहटा रेवतमल जी की महफिल में पूज्य गुरुदेव कालूगणी का विराजना था। मंत्री-मुनि मगनलाल जी स्वामी के साथ मैं गोचरी जाया करता। उनकी गोचरी-कला, द्रव्यों की परख, खपत का अनुमान, दाता का अभिप्राय और समयज्ञता सीखने-धारने जैसी थी । दूसरी बार किसी छोड़े हुए द्रव्य को लाना उन दिनों मेरा काम था । मुझे भेजा गया । मैं चने की दाल अधिक ले आया। ले क्या आया, दाता ने भावावेश में अधिक डाल दी।
कालूगणी ने मुस्कराकर फरमाया-इतनी कैसे लाया ? मैंने निवेदन किया, लाया नहीं गुरुदेव ! बहराते समय ज्यादा डाल दी।
मगनमुनि बोले-'थारै तो गोबर ही न्हाख देई ? है भभेक ? मूरख कठई को, जा लेजा, आपां रै रीत है—'बत्ती ल्यावै बीन सूप देणी।'
उपालंभ के तेज-स्वरों में कही गई बात मुझे चुभ गयी । कुछ उन्मने भाव से मैं दाल की पात्री ले साझ-मंडल में आया। किसी को बिना कुछ कहे दाल पीने बैठ गया। संतों ने पूछा- क्या बात है ? मैं कुछ नहीं बोला । सोहन मुनि चूरू, तपस्वी सुखलाल जी स्वामी और मुनि जसकरण जी ने टोकते हुए कहा--करते क्या हो ? कोई खराबी हो गई तो? पर मैं कब सुनने वाला था । दाल पीता गया। जब संतों ने पात्री पकड़ी तो मैंने अपनी लय में कहा-नहीं-नहीं, कुछ नहीं होगा, मगनलाल जी स्वामी ने बख्शाइ है। मंत्री-मुनि आहार-मंडली में पधारे। संतों ने शिकायत की। मगन मुनि ने 'वज्र मूर्ख है' कहकर बात टाल दी।
२३४ आसीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org