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डाकू नहीं आ सकता। पर, लोगों का जी कहां टिकता?
औरतें-बच्चे बिलबिला रहे हैं, इतने में तीन-चार आदमी आते दीखे । ठाकुर प्रतापजी ने बन्दूक ताने हुए ललकारा--'रुक जाओ, हाथ खड़े कर दो।'
प्रतापसिंहजी एक फौजी आदमी हैं। राजपूती उनके रग-रग में चू रही है। आने वाले रुके और बोले, हम यात्री हैं, हमारे ट्रक में आग लग गयी है, आश्रय चाहते हैं, सोने का स्थान दे दें तो बड़ी कृपा होगी। बहम निकला। लोग घरों को गये । प्रतापजी ने ट्रक वालों को अपने पास सुलाया।
सुबह बिहार करते समय हमने देखा, ट्रक जला पड़ा है । उसके पहिये एक-एक कर ज्यों फटे, गोली की-सी आवाजें आयीं, लोगों को डाकुओं के आने का बहम हो गया। दूध का जला छाछ को भी फूंककर पीता है । भाईजी महाराज ने फरमाया----
'मांडीखेड़ा ! तू बड़ो, बहमी भी बेढंग। (पर) दिखा दियो परतापजी, रजपूती रो रंग ।।
संस्मरण २५५
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