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कालूगणी को पता चला-मुझे नजदीक बुलाकर वात्सल्य उंडेलते हुए फरमाया-चम्पालाल ! ऐसा नहीं करते, वह तुझे अकेले को थोड़े ही सौंपी थी। मगनलाल जी स्वामी तो तुम्हारी गंभीरता परखते थे। जाओ, आइन्दा ध्यान रखना। बस, एक शब्द में मेरा जहर उतर गया। मैंने मंत्री मुनि से सविनय क्षमा मांगी।
'गुरु की गुरुता गजब की, वत्सलता अनपार । एक शब्द में ही दियो, म्हारो जहर उतार ॥'
संस्मरण २३५
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