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सेवार्थी की पहचान
पूज्य-पाद श्रद्धेय कालगणी फरमाया करते थे-कठिन श्रमवाली सेवा औरों पर मत डालो । अकेले स्वयं से वह पार न पड़े तो किसी सहयोगी को चुनो,पर जीमत चुराओ, मुंह मत लुकाओ । 'अहं प्रथमः' का उत्साह ही सेवार्थी की असल पहचान है ।
__ श्रीभाई जी महाराज ने अपना एक उदाहरण देते हुए बताया, मुसालिया (मारवाड़) की बात है। भयंकर गरमी के दिन । मध्य दुपहरी में बाल-मुनि सम्पत, पंचमी समिति के लिए बाहर गये। सरदार नाहरसिंह साथ में था। अनजान संपत मुनि नदी में चले तो गये । वह गरम-गरम तपी हुई बालू । अब लगे पैर जलने । वे वापस नहीं आ सके । पैरों में फफोले पड़ गए। रोने लगे। सरदार नाहरसिंह ने दौड़-दौड़े ठिकाने आकर गुरुदेवसे निवेदन किया। उस समय कालूगणी महाराज की सेवा में मैं बैठा था। आचार्य देव ने फरमाया-चम्पा ! सुखलाल को बुला तो। मैंने निवेदन किया-क्यों गुरुदेव ? आचार्यवर ने कहा-नानक्या ने ल्याणों है रे?
मैंने निवेदन किया-सुखलाल जी स्वामी क्या करेंगे? मैं ही ले आता है।
श्री जी ने फरमाया-पर बहुत जलते हैं, तेरे से पार नहीं पड़ेगा। उसी को बुला।
मैंने गुरुदेव के चरण पकड़ लिये—'यह अवसर तो मुझे ही बख्शाइये, विश्वास कीजिए, आपकी दया से सब पार पड़ जाएगा।'
गुरुदेव ने कंबल साथ लेकर जाने का आदेश फरमाया। गुरु गुरु होते हैं । उनकी महानता उन्हीं में होती है। आचार्य हर समस्या का समाधान भी जानते हैं। यदि उस दिन कंबल लेकर नहीं गया होता, तो नदी की रेत पार कर आना मुश्किल था। संपत को उठाकर लाना पड़ा। उसके पैरों में छाले पड़ गये थे, उसके क्या मेरे पैरों में भी छाले पड़े। चेहरा लाल-लाल हो गया। ज्यों ही संपत को
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आसीस
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