________________
२६
नये मकान और आज के जवान
वि० सं० २००६ में श्री भाईजी महाराज सर्वप्रथम दिल्ली यात्रा को पधारे। हरियाणा (पंजाब-पेपसू) का स्पर्श करते हुए हम नांगलोई पहुंचे । नांगलोई दिल्ली से कोई १० मील इधर है। सड़क के किनारे बनी एक पुरानी सराय में हम रुके । सराय बराये-नाम है । किसी युग में आने-जाने वाले यात्री-वाहन यहां विश्राम करते होंगे। वहां एक विशाल बरगद (बड़) का पुराना पेड़ है । उसके नीचे एक तिबारी
और साथ ही एक छोटी-सी कोठरी । पास ही एक कुआं। हम उसी सराय में ठहरे। सहवर्ती यात्री भी वहीं थे। आकाश बादलों से घिरा था। सायंकाल स्थानाभाव देख यात्री लोग आगे दिल्ली चले गए। हमें तो वहीं रहना था । हमारे पास रतन कहार (दिल्ली) और पूसाराम सेवग (राजलदेसर)-दो व्यक्ति रहे ।
कोई घंटा भर दिन रहा होगा, बारिस प्रारंभ हुई। अचानक तीव्र वेग से तूफान (बातूल) आया । एक साथ बिजली कड़की और जोर-से एक धमाका हुआ। हम सब जिस कोठरी में बैठे थे, उसी की छत पर बड़ की एक विशाल शाखा टूटकर गिरी। पूरा मकान हिल उठा, मानो कोई भूकम्प आया हो। धमाके के साथ ही कोठरी की छत और दीवार में एक मोटी तरेड़-दरार आ गयी।
श्री भाईजी महाराज दोनों कोनों में अंगुलियां दबाए, आंखें मूंदे-'भिक्खू स्वाम, भिक्खू स्वाम' 'शांतिनाथ प्रभो, शांतिनाथ प्रभो' रटे जा रहे थे। मुनिश्री को कड़कने और गर्जने का अतिशय भय लगता था । ज्यों ही मकान फटा कि आंखें खुलीं । हम सभी संत भयभीत थे। बाहर निकलने का रास्ता टूटी शाखा ने रोक लिया था।
रतन और पूसाराम तिबारी में से चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे-क्या हुआ? महाराज ! क्या हुआ? श्री भाई जी महाराज ने फरमाया कुछ नहीं हुआ, डरो मत, जो होना था हो गया। अब कोई भय नहीं है । जो मकान पुराना है, उसकी नींव
संस्मरण २४७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org