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आया था। पर संत, तेरी शांति ने मेरा गुस्सा खा लिया । माफ करिए मेरा कसूर । चल ईब पानी गरम करवा दूं ? बूढ़े ने आग्रह किया ।
और मेरे जैसे लोग सोच रहे थे — हो गया पानी गरम ? गरम क्या होकर ठंडा भी हो गया ।
लगभग एक घंटे से ऊपर समय इसी झक-झोड़ में बीता । धूप तेज हो गई थी । संतों को प्यास सता रही थी । हमें अभी 'लोन' पहुंचना था। लोगों ने जय बोली । विहार हुआ । पर छग्गू - बा अभी तक कहे जा रहे थे— आसरे हैं क नीं ? ओ मूरखो ! म्हारैऊं ऊं करें, लकड़ीऊं डरावै मनै, ओरी म्हूं-पाणी । छग्गू बा को देख श्री भाईजी महाराज हंसे और बोले
छग्गू - बा ! आ के ल्याया, पाणी लारै लहताण । रह्या तिसाया, चढ्यो तावड़ो, वाह रे ! वाह ! धमताण ॥
२४६ आसीस
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गरम
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