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लाडनं की रेल
उन दिनों लाडनूं रेल की मुख्य लाइन से जुड़ा हुआ नहीं था। केवल सुजानगढ़ से लाडनूं तक एक टुकड़ा-अद्धा चला करता । वह भी टेम-बेटेम । न स्टेशन था, न सिगनल था। एक बार सुजानगढ़-लडनूं के बीच कविवर चांदमल जी स्वामी ने रेल देखी, वह धीरे-धीरे चल रही थी। उन्होंने चम्पक मुनि से कहा-चम्पा ! देख ! देख !
टूट्या भांग्या तीन डबलिया, इंजन बढ़ो बैल !
देख, सिसकती चाले चम्पा ! लाडनूं री रेल । सच, वह चलती तो ऐसे ही थी, जैसा चांद-मुनि ने कहा, पर लाडनूं की हर बात सदा चम्पक मुनि को सुहावनी ही लगती । मातृभूमि का गौरव उनकी नसनस में रमा हुआ था। ___ भाईजी महाराज ने कहा-महाराज ! आपका कहना तो सही है, पर यह लाडनं की रेल है। देखिये ! कैसी मस्ती से चलती है। मस्ती से चलना भी किसीकिसी को आता है। जरा दृष्टिकोण बदलकर देखो-सिसकती नहीं, मलकती कहो महाराज ! मलकती। साधन सामग्री के अभाव में भी जो संतुष्ट और मस्त रहता है, यही तो साधना का सार है, देखिये
. 'तार नहीं, टैम नहीं, नहिं दियै में तेल।
तो ही चाल मलकती चाल, म्हारै लाडनूं री रेल । है न इस रेल की भी विशेषता । क्योंकि यह लाडनूं की है, लाडनूं की।
संस्मरण २२६
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