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१६ राम-चारत्र, एक रहस्य, एक हेतु
वि० सं० १९८६ लाडनूं चातुर्मास में श्री भाईजी महाराज ने रामचरित्र कंठस्थ करना प्रारम्भ किया। वे रामायण सीखते तो थे पर सन्तों से छुपे-छुपे । उन दिनों सोहन मुनि (चूरू) और चम्पक मुनि में अच्छा खासा विनोद चला करता। दोनों मगनलालजी स्वामी (दीवान जी) के साझ-मंडल में पात्री-जोड़ी करने के काम में नियुक्त थे । सोहन मुनि को राम-रास सीखने की भनक लगी। पात्री जोड़ी करते-करते सोहन लाल जी स्वामी ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा-सन्तो! सुनो। सुनो। एक नयी बात । तुम्हें पता है, चम्पक मुनि राम-चरित्र क्यों सीख रहे हैं ? उन्होंने एक पद्य रचा और गाते हुए कहने लगे
'रामायण मुहड़े करस्यूं मैं आगेवाण . विचरस्यूं खांधे पर ओघो धरस्यूं कर अभिमान, मान-मान छांन , चम्पक मुनि रामायण सीखे जाण-जाण-जाण'।
यह व्यंग्य, चम्पक-मुनि को अच्छा नहीं लगा। न उनके मन में अग्रगण्य विचरने की हूंस थी, न अभिमान का भाव ही था, पर उस युग में रामचरित्र सीखने का सीधा कोण यही माना जाता रहा । सन्तों में नयी चर्चा छिड़ी, क्योंकि एक नया रहस्य संतों के हाथ लग गया था।
भाईजी महाराज ने भी एक उत्तर पद्य बनाया और दूसरे दिन जब सोहन मुनि ने वही पद्य फिर संत-मंडली में उथला, तो चम्पक मुनि बोल पड़े--
संस्मरण २२७
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