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लाडनं की बाड्यां
चांदमलजी स्वामी (जयपुर) एक अल्हड़ कवि संत थे। उनकी कविताओं की शानी तेरापंथ के इतिहास में नहीं मिलती। प्रकृति में अवश्य उफान था, पर थे बड़े सरस और विनोदी । चम्पक मुनि से वे बहुधा विनोद किया करते-चम्पा ! तुम्हारे लाइन में क्या पड़ा है ?
उस दिन चांदमलजी स्वामी देरी से आए। शायद उस समय भी पंचमी समिति के स्थान की दुविधा ही थी। चातुर्मास में और भी संकडाई हो जाती हो। लाडनं यों ही ऊंचाई पर बसा है। वहां धोरे-रेत के टीले नहीं के बराबर हैं। चांदमलजी स्वामी को स्थान सुलभ नहीं हुआ होगा। देरी से आने पर संतों ने देरी का कारण पूछा। वे तो भरे हुए आये थे। आते ही उन्होंने कहा-लाडनूं में स्थान है कहां जो झट से आ जाता ?
नहिं कोई धोरा, नहीं कोई ओला, नहीं कोई बोझा-झाड यां। लाडनूं में काम निकालण, आगें पाछै बाडयां ।।
यह तो सीधा लाडनूं पर व्यंग्य था। भाईजी महाराज इसे नहीं सुन सके, वे गुनगुनाए और बोले-'महाराज ! लाडनूं जैसा साताकारी क्षेत्र है कहां ? आप देखो तो सही
धोरा तपै-ठरै कट, ज्यावै, ओला-बोझा-झाड्यां ।
बारह ही पून्यूं सुखदायी, (अँ) लाडनूं री बाड्यां।। अब चांदमुनि के पास इसका कोई जबाव नहीं था।
संस्मरण २२५
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