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लाडनू-लंदन
१९८६ लाडनं चातुर्मास में एक बार कविवर मुनिश्री चांदमल जी स्वामी के पैर में पुरानी बाड़ का कांटा चुभ गया। कोशिश की, पर वह नहीं निकला। उस युग के कांटा-विशेषज्ञ चौथ मुनि, सोहन मुनि (चूरू) आदि कई संतों ने खूब मेहनत की, पर कांटा भुरता (टूटता) गया, आखिर पुरानी बाड़ का जो था। सभी ने परामर्श दिया-'अब इसे छोड़ दो, फाबे (पंजे) में बेढब चुभा कांटा अड़ गया है, खोदतेखोदते पांव बींध गया है, अब यह अभी नहीं निकलेगा।
चांदमलजी स्वामी की पीड़ा देख चम्पक मुनि से नहीं रहा गया। वे बोले, एक बार मुझे दो। वे बैठे । सबने मना किया, पर देखते-देखते गहरा शूल का सांता दिया कि कांटा नोक सहित एक ही सपाके में ऊपर आ गया।
पास खड़े सोहन मुनि (चूरू) ने कहा-'वाह रे ! लाडनूं का पानी' सुनते ही वेदना-व्यथा भरा चांद मुनि का कवित्व जाग उठा, उन्होंने कहा
कांटा भाटा कांकरा, और लौह का पात। चम्पा ! थांरी चंदेरी री, च्यारूं बातां ख्यात ॥
भला, लाडनूं की हल्की बात चम्पक मुनिको कब सुहाती। उन्होंने भी प्रतिवादी पद्य बनाया और उत्तर दिया
सीधी पट्यां सांतरी, और दूध सो पाणी,
सन्तां ! म्हारोलाडनूं, लन्दन री सहनाणी। सुनते ही सारा वातावरण स्मित हास्य से मुखरित हो उठा।
२२४ आसीस.
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